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तत्त्वानुशासन ध्यानके ही प्रपचन अथवा विस्तृत कथनको लिए हुए होनेसे, इस ग्रन्थको 'ध्यान-शास्त्र' भी कहते हैं। इसीसे कुछ ग्रन्थकारोंने 'ध्यानशास्त्र' अथया । ध्यानग्रन्य'के रूपमे इसका उल्लेख किया है, जैसा कि पचास्तिकाय (गा० १४३) की तात्पर्यवृत्तिमे जयसेनाचार्य के 'तथा चोक्त तत्त्वानुशासन-ध्यानग्रन्थे' इस वाक्यसे प्रकट है, जिसके साथ ग्रन्थका 'चरितारो न चेत्सन्ति यथारयातस्य सम्प्रति' इत्यादि पद्य (८६) उद्धृत किया है । परमात्मप्रकाश-टीकामे ब्रह्मदेवने भी 'यथा चोक्त तत्त्वानुशासने ध्यानग्रन्थे' इस वाक्य के साथ 'यत्पुनर्वञकायस्य' इत्यादि पद्य (८४) उद्धृत किया है । ध्यानग्रन्थको अपेक्षा 'ध्यानशास्त्र' नाम अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। भगवज्जिनसेनाचार्यने भी अपने ध्यानतत्त्वानुवर्णन (आर्ष पर्व २१) को 'ध्यानशास्त्र के नामसे उल्लेखित 'किया है । इस तरह 'तत्त्वानुशासन' और 'ध्यानशास्त्र' ये दोनो ही इस ग्रन्थके सार्थक नाम हैं।
२. ग्रन्थकी प्रतियोंका परिचय यह ग्रन्थ आजसे कोई ४४ वर्ष पूर्व (विक्रमाव्द १९७५) सबसे पहिले माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमालाके 'तत्त्वानुशासनादि. सग्रह' नामक त्रयोदशवें ग्रन्थमे मूलरूपसे प्रकाशित हुआ है । जिस हस्तलिखित प्रतिपरसे यह प्रकाशित हुआ है वह वम्बई-दिगम्वरजनमन्दिर-पुस्तकालयके एक जीर्ण-शीर्ण गुटफेमे सगृहीत है । ' उसीपरसे इस ग्रन्थकी प्रस-कापी कराई जाकर और दूसरी प्रतिके कहींसे न मिलनेके कारण, उसी एक प्रतिके आधारसे सशोधन कराया जाकर यह अन्य मुद्रित हुआ है, ऐसा ग्रन्थमालाके मत्री प ० नाथूरामजी प्रेमी अपने 'सक्षिप्त परिचय' मे सूचित करते हैं । बम्बई दिगम्बर जैनमन्दिरकी वह मूल प्रति अपने देखनेमे नही आई, इससे उसका कोई १. तदस्य ध्यानशास्त्रस्य यास्ता विप्रतिपत्तय । निराकुरुष्व ता देव भास्वा निव तमस्तती ॥ आप २१-२१६ ।