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प्रस्तावना
१. ग्रन्थका नाम इस ग्रन्यका मूल नाम 'तत्त्वानुशासन' है, जैसा कि ग्रन्थके 'वक्ष्ये तत्त्वानुशासनम्' इस प्रतिज्ञावाक्य (१) और 'तत्त्वानुशासनमिव जगतो हिताय श्रीरामसेन-विदुषा व्यरचि स्फुटार्थम्' इस उपसहारवाक्य (२५७) से प्रकट है। और यह ठीक ही है, क्योकि ग्रन्थका विपयारम्भ ही हेय तथा उपादेय ऐसे दो मूल तत्त्वोंकी प्ररूपणाको लेकर हुआ है, जिसमें वन्ध-मोक्षादि सारे तत्त्वोंके कथनको समाविष्ट किया गया है। वस्तुके याथात्म्यको-चेतन या अचेतन जो भी वस्तु जिस प्रकारसे व्यवस्थित है उसके उसी प्रकारके भावको-'तत्त्व' बतलाया है (१११), और इसलिए इस ग्रन्थका जो भी कथन है वह सब वस्तुके याथात्म्यकी दृष्टिको लिये हुए होनेसे तात्त्विक है और ग्रन्थके 'तत्त्वानुशासन' नामको सार्थक करता है।
तत्त्वानुशासनके रूपमे इस ग्रन्थका प्रधान विषय 'ध्यान' है। प्रारम्भके ३२ पद्योको छोडकर शेष सारा अन्य प्रायः ध्यानसे ही सम्बन्ध रखता है। ध्यान-द्वारा व्यवहार तथा निश्चय दोनो प्रकारका मोक्षमार्ग सिद्ध होता है, इस विषयकी सूचना करते हुए ३३वें पद्यमे सुधीजनोंको ध्यानके अभ्यासकी प्रेरणा की गई है और उसके बादसे ही ध्यान-विषयक कयनका प्रारम्भ हुआ है, जो उपसहार-पर्यन्त चला गया है, जैसा कि उपस हारके निम्न पद्यमे भी जाना जाता है -
सारश्चतुष्टयेऽप्यस्मिन् मोक्ष स ध्यान-पूर्वक इति मत्वा मया किंचिद् ध्यानमेव प्रपचितम् ।। २५२ ।।