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तत्त्वानुशासन और साधुके २८ मूलगुण । 'प्राप्तसप्तमहर्द्ध य' विशेषण सात महाऋद्धियो (लब्धियो) की प्राप्तिका सूचक है, जिनके नाम हैं-१ बुद्धि, २ तप, ३ विक्रिया, ४ औषधि, ५ रस, ६ बल, ७ अक्षीण, और जो सब अनेक भेदोमें विभक्त हैं। ये सब ऋद्धियां, जिनका भेद-प्रभेदो-सहित स्वरूप आगममें वर्णित है, सभी आचार्यो, उपाध्यायो तथा साधुओको प्राप्त नही होती-किसीको कोई ऋद्धि प्राप्त होती है तो किसीको दूसरी, किसीको एक ऋद्धि प्राप्त होती है तो किसीको अनेक और किसीको एक भी ऋद्धिकी प्राप्ति नहीं होती है। फिर भी चूकि यहाँ आचार्यों आदिमेसे किसी व्यक्ति-विशेषका ध्यान विवक्षित नही है, आचार्यादि किसी भी पद-विशिष्टको उसके ऊँचेसे ऊंचे आदर्श रूपमे, ग्रहणकी विवक्षा है, इसलिये पदविशिष्ट के ध्यानके समय सभी ऋद्धियोका सचिन्तन उसके साथमे आजाता है।
प्रकारान्तरसे ध्येयके द्रव्य-भावरूप दो ही भेद
एवं नामादि-भेदेन ध्येयमुर अथवा द्रव्य-भावाभ्यां द्विधैव तदवस्थितम् ॥१३१॥
'इस प्रकार नाम आदिके भेदसे ध्येय चार प्रकारका कहा गया है । अथवा द्रव्य और भावके भेदसे वह दो प्रकारका ही अवस्थित है।'
. व्याख्या-यहाँ नामादि चतुर्विध ध्येयके कथनकी समाप्तिको सूचित करते हुए प्रकारान्तरसे ध्येयको द्रव्य और भाव ऐसे दो रूपमे ही अवस्थित बतलाया है। अगले पद्योमे इन दो भेदोकी दृष्टिसे ध्यानके विषयभूत ध्येयका निरूपण किया गया है ।