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________________ ध्यान-शास्त्र १५७ स्पष्ट है कि अर्हत्सिद्धके ध्यानका स्वाभाविक फल तो मोक्ष ही है, उसीके लिए वह ध्यान किया जाता है, जैसाकि 'नि श्रेयसाप्तये (१२८) इस पदके द्वारा व्यक्त किया गया है । परन्तु उसकी प्राप्तिमे दूसरा कारण जो चरमशरीर है वह यदि नही है तो फिर स्वर्गोंमे जाना होता है, जहाँ अनुपम भोगोकी प्राप्ति होती है; और इस तरह दोनो फल बनते हैं। आचार्य-उपाध्याय-साधु-ध्येयका स्वरूप सम्यग्ज्ञानादि-सम्पन्नाः प्राप्तसप्तमहर्द्धयः । यथोक्त-लक्षरणा ध्येया सूर्युपाध्याय-साधव. ॥१३०॥ 'जो सम्यग्ज्ञानादिसे सम्पन्न है-सम्यग्ज्ञान, सम्यक्श्रद्धान और सम्यक्चारित्र जैसे सद्गुणोसे समृद्ध है-, जिन्हें सात महाऋद्धियाँ-लब्धियाँ (समस्त अथवा व्यस्त-रूपमे) प्राप्त हुई है और जो यथोक्त आगमोक्त-लक्षणके धारक है, ऐसे आचार्य, उपाध्याय और साषु ध्यानके योग्य हैं।' व्याख्या-सिद्ध और अर्हन्त इन दो परमेष्ठियोके ध्येयरूपका निरूपण करनेके अनन्तर अब इस पद्यमें शेष आचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीन परमेष्ठियोकी ध्येयरूपताका निर्देश किया गया है। इस निर्देशमे 'सम्यग्ज्ञानादि सम्पन्ना' यह विशेषणपद तो सबके लिये सामान्य है-आचार्यादि तीनो परमेष्ठी सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रसे भले प्रकार युक्त होने ही चाहिये । 'यथ क्तलक्षणा' पद प्रत्येकके अलग-अलग आगमोक्त. लक्षणो-गुणोका सूचक है, जैसे आचार्यके ३६, उपाध्यायके २५ १ बुद्धि तो वि य लद्धी विकुव्वणलद्धी तहेव ओसहिया । रस-बल-अक्खीणा वि य लद्धीपो सत्त पण्णत्ता। (वसु० श्रा० ५१२) २. म तथोक्तलक्षणा ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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