________________
१२६
तत्त्वानुशासन रागमात्रका अभाव होजानेसे किसीको कुछ देने-दिलानेकी इच्छादिक नही होतो तव वह स्वर्ग-मोक्ष-फलका दाता कैसे ? यह प्रश्न पैदा होता है। इस प्रश्नके उत्तर-रूपमे ही 'शक्तिस्तस्य हि तादशी' इस वाक्यकी सृष्टि हुई जान पड़ती है । और इसके द्वारा यह बतलाया गया है कि भले ही वीतरागके इच्छाका अभाव होजानेसे देने-दिलानेका कोई प्रयत्न न भी बनता हो, फिर भी उसमे ऐसी शक्ति है जिसके निमित्तसे विना इच्छाके ही उस फलकी प्राप्ति स्वत होजातो है । वह शक्ति है कर्म-कलकके विनाशद्वारा स्वदोपोकी शान्ति होजानेसे आत्मामे शान्तिको पूर्णप्रतिष्ठा रूप । जिसकी आत्मामे शान्तिको पूर्णप्रतिष्ठा होजाती है वह विना इच्छा तथा विना किसी प्रयत्नके हो शरणागतको शान्तिका विधाता होता है', उसी प्रकार जिस प्रकार कि शीतप्रधानप्रदेश, जहाँ हिमपात होरहा हो, विना इच्छादिकके ही अपने शरणागतको शीतलता प्रदान करता है । अर्हत्परमात्माने घातियाकर्मोका नाश कर अपने भव-बन्धनोका छेदन किया है, इसलिये उनके ध्यानसे दूसरोके भव-बन्धनोका सहज ही छेदन होता है; जैसा कि कल्याणमन्दिरके निम्नवाक्यसे जाना जाता है :
हर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिलीभवन्ति जन्तोः क्षरणेन निविडा प्रपि कर्मबन्धाः । सद्यो भुजंगममया इव मध्यभागमभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य ।
प्रस्तुत ग्रन्थमे ही आगे बतलाया है कि अर्हत्सिद्धके ध्यानसे चरमशरीरीको तो मुक्तिकी प्राप्ति होती है, जो चरमशरीरी नही उसको ध्यानके पुण्य-प्रतापसे भोगोकी प्राप्ति होती है। इससे १. स्वदोष शान्त्या विहितात्मशान्तिः शान्तेविधाता शरण गताना।
स्वयभूस्तोत्रे, समन्तभद्रः