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________________ ध्यान-शास्त्र १२५ - minा तियंचोकी सभाओंसे निषेवित हुए उन्हे उन सब तत्त्वोका उपदेश देरहे हैं जो केवलज्ञान-द्वारा निर्णीत हुए हैं। उनका शरीरा प्रशस्त लक्षणोसे पूर्ण पूरी ऊंचाईको लिये हुए, अतीव उज्वल है। जन्माभिषेकादि कल्याणकोके अवसर पर वे जिस पूजातिशयको प्राप्त हुए हैं उसे भो ध्यानमे लिया जाता है। सक्षेपमे जिन जिन विशेषणोका उनके लिये प्रयोग हुआ है उन उनरूपसे उन्हे ध्यानमे देखा जाता है। यहां अतिशयो तथा प्रातिहार्यो के नामादिकका निर्देश न करके एकका सख्या-सहित और दूसरेका विना सख्याके ही वहुवचनमे उल्लेख करके प्रकारान्तरसे उनके नाम तथा स्वरूपको अनुभवमे लेनेकी प्रेरणा की गई है। ये अतिशय और प्रातिहार्य सुप्रसिद्ध हैं, अनेकाऽनेक जैनग्रन्थोमे इनके नामादिककाउल्लेख पाया जाता है । अत ये अन्यत्रसे सहज हो जाने जासकते हैं। अर्हन्तदेवके ध्यानका फल 'वीतरागोऽप्यय देवो ध्यायमानो मुमुक्षिभि.) स्वर्गाऽपवर्ग-फलद. शक्तिस्तस्य हि तादृशी॥१२६॥ 'मुमुक्षुओके द्वारा ध्यान किया गया यह अर्हन्तदेव वीतराग होते हुए भी उन्हे स्वर्ग तथा अपवर्ग-मोक्षरूप फलका देनेवाला है। उसकी वैसी शक्ति सुनिश्चित है।' व्याख्या-जिस अर्हन्त परमात्माके ध्येयरूपका वर्णन इससे पूर्व पद्योमे किया गया है उसके ध्यानका फल इस पद्यमे बतलाया है और वह फल है स्वर्ग तथा मोक्षको प्राप्ति । इस फलका दाता उस अर्हन्तदेवको हो लिखा है जो कि वीतराग है । वोतरागके १. वीतरागोऽप्यसो ध्येयो भव्याना भवच्छिदे । विच्छिन्नबन्धनस्याऽस्य तादृग्न सगिको गुण ॥(आर्ष २१-१२६)
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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