SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२४ तत्त्वानुशासन 'तथा जो प्राप्तोंका प्रमुख प्राप्त है, देवोका अधिदेवता है, घातिकर्मोको अत्यन्त क्षीण किये हुए है, अनन्त-चतुष्टयको प्राप्त है, भूतलको दूर छोडकर नभस्तलमे अधिष्ठित है, अपने परम औदारिक शरीरकी प्रभासे भास्करको तिरस्कृत कर रहा है, चौतीस महान् आश्चर्यों-अतिशयो और (आठ) प्रातिहार्योसे सुशोभित है, मुनियो-तियंचो-मनुप्यों और स्वर्गादिके देवोको सभापोंसे भले प्रकार सेवित है, जन्माभिषेक आदिके अवसरो पर सातिशय पूजाको प्राप्त हुआ है, केवलज्ञान-द्वारा निर्णीत सकल-तत्त्वोका उपदेशक है, प्रशस्त-लक्षणोसे परिपूर्ण उच्च शरीरका धारक है,याकाश-स्फटिकके अन्तमे स्थित जाज्वल्यमान ज्वालावाली अग्निके समान उज्ज्वल है, तेजोमें उत्तम तेज और ज्योतियोंसें उत्तम ज्योति है, उस अर्हन्त परमात्माको ध्याता नि.श्रेयसको-जन्म-जरा-मरणादिके दु खोसे रहित शुद्ध सुखस्वरूप निर्वाणकी'-प्राप्तिके लिये ध्यावे-अपने ध्यान मे उतारे।' व्याख्या-इन पद्योमे अर्हत्परमात्माको जिस रूपमे ध्याना चाहिये उसकी व्यवस्था दी गई है और उसका उद्देश्य नि श्रेयस (मोक्ष)-सुखकी प्राप्ति बतलाया है । अर्थात् मोक्ष-सुखकी साक्षात् प्राप्ति तथा प्राप्तिकी योग्यता सम्पादन करनेके लक्ष्यको लेकर यह ध्यान किया जाना चाहिये । इस ध्यानकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमे अर्हत्परमात्माको भूतलसे दूर आकाशमे स्थित ध्यान किया जाता है और इस रूपमे देखा जाता है कि उनके परम औदारिकशरीरकी प्रभाके आगे सूर्यकी ज्योति फीकी पड़ रही है। वे ज्योतियोमे उत्तमज्योति और तेजोमें उत्तमतेज-युक्त हैं, चौंतीस अतिशयो (महान् आश्चर्यो ) तथा । आठ प्रातिहार्यो से विभूषित हैं और मुनियो, देवो, मानवो तथा
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy