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________________ १२३ ध्यान-शास्त्र और निर्मल स्फटिकका जो उदाहरण दिया है वह बड़ा ही सुन्दर तथा हृदयग्राही है-निर्मल स्फटिकमे प्रतिबिम्बित हुए जिनबिम्बका आकार तो है परन्तु उसका पौद्गलिक शरीर नहीं है। 'लोकाग्नशिखरारूढ' विशेषणमे 'लोकाग्रशिखर' लोकके मध्यमे स्थित सनाड़ोका वह सर्वोपरि भाग है जिसके नीचे अर्धचन्द्राकार सिद्धशिला रहती है । कर्म-बन्धनसे छूटते हो सिद्धात्मा ऊर्ध्वगमन-स्वभावसे एक क्षणभरमे वहाँ पहुँच जाता है । सिद्धात्माके इस ध्यानमे उसे प्रायः वही स्थित ध्याया जाता है। अर्हदात्मक-ध्येयका स्वरूप तथाऽऽद्यमाप्तमाप्तानां देवानामधिदैवतम् । प्रक्षीण-घातिकर्माणं प्राप्ताऽनन्त-चतुष्टयम् ॥१२३॥ दूरमुत्सृज्य भू-भागं नभस्तलमधिष्ठितम् । परमौदारिक-स्वाऽङ्ग-प्रभा-भत्सित-भास्करम् ॥१२४॥ चतुस्त्रिशन्महाऽऽश्वर्यैः प्रातिहार्यश्च भूषितम् । मुनि-तिर्यङ-नर-स्वर्गि-सभाभि. सन्निषेवितम् ॥१२॥ जन्माऽभिषेक-प्रमुख प्राप्त-पूजाऽतिशायिनम् । केवलज्ञान-निर्णीत-विश्वतत्त्वोपदेशिनम् ॥१२६।। प्रशस्त-लक्षणाकीर्ण-सम्पूर्णोदन-विग्रहम् । आकाश-स्फटिकान्तस्थ-ज्वलज्ज्वालानलोज्ज्वलम् ॥१२७ तेजसामुत्तम तेजो ज्योतिषां ज्योतिरुत्तमम् । परमात्मानमर्हन्त ध्यायेन्निश्रेयसाऽऽप्तये ॥१२८।। १. मा मधिदेवता । २. भा ज ऽतिशायन । ३ म मा . कार
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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