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ध्यान-शास्त्र
द्रव्यध्येय और भाव-ध्येयका स्वरूप द्रव्य-ध्येय बहिर्वस्तु चेतनाऽचेतनात्मकम् । भाव-ध्येयं पुनध्येय'-सलिभ-ध्यानपर्ययः ॥१३२॥
'चेतन-अचेतनरूप जो बाह्य वस्तु है वह सब द्रव्य ध्येयके रूपमें अवस्थित है और जो ध्येयके सदृश ध्यानका पर्याय हैध्यानारूढ आत्माका ध्येय-सदृश परिणमन है-वह भाव-ध्येयके रूपमे परिगृहीत है।'
व्याख्या-इस द्विविध-ध्येय-प्ररूपणमे स्वात्मासे भिन्न जितने भी बाह्य पदार्थ हैं, चाहे वे चेतन हो या अचेतन, सब द्रव्यध्येयकी कोटिमे स्थित है, और भावध्येयमे उन सब ध्यान-पर्यायोका ग्रहण है जिनमे ध्याता ध्येयसदृश परिणमन करता है-ध्येयरूप धारण करके तद्वत् क्रिया करनेमे समर्थ होता है।
___ द्रव्यध्येयके स्वरूपका स्पष्टीकरण ध्याने हि विभ्रति स्थैर्य ध्येयरूपं परिस्फुटम् । आलेखितमिवाऽऽभाति ध्येयस्याऽऽसन्निधावपि ॥१३३।। ___ 'ध्यानमें स्थिरताके परिपुष्ट हो जाने पर ध्येयका स्वरूप, ध्येयके सनिकट न होते हुए भी, स्पष्टरूपसे आलेखित-जैसा प्रतिभासित होता है-ऐसा मालूम होता है कि वह ध्याता आत्मामे अकित है अथवा चित्रित हो रहा है।'
व्याख्या-यहाँ, द्रव्यध्येयके स्वरूपको स्पष्ट करते हुए, यह बतलाया है कि जब द्रव्यध्येयका रूप ध्यानमे पूरी तरह स्थिरताको प्राप्त होता है तब वह ध्येयके वहां मौजूद न होते हुए भी आत्मामे उत्कीर्ण-कीलित अथवा प्रतिविम्बित-जैसा प्रतीत होता है। १. म पुनर्धेय । २. मु विभ्रते ।