________________
१२०
तत्त्वानुशासन उनके परिवर्तनमे सहकारी है-उसे कालद्रव्य' कहते हैं । कालद्रव्यके भी दो भेद है-एक निश्चयकाल और दूसरा व्यवहारकाल । लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशमे जो अनादि-निधन एक-एक कालाणु स्थित है और जिसका वर्तना लक्षण है-जो जीव-पुद्गलादि सभी द्रव्योको उनके प्रतिक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक सत्रूप वर्तनमे सहायक अथवा स्वसत्तानुभूतिमे कारण है-उसे निश्चयकालद्रव्य कहते हैं । यह कालद्रव्य असख्य है और रत्नोकी राशिकी तरह माना गया है । व्यवहारकालद्रव्य उसका नाम है जो समय (क्षण), पल, घडी, घटा, मुहूर्त, पहर, दिन, रात्रि, सप्ताह, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष आदिके भेदको लिये हुए आदि-अन्त-सहित है। निश्चयकाल द्रव्यके पर्यायरूप है और जिसके परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व ये चार लक्षण हैं। द्रव्यमे अपनी जातिको न छोडते हुए जो स्वाभाविक या प्रायोगिक स्थूल परिवर्तन-पर्यायसे पर्यायान्तर-होता है उसे 'परिणाम' कहते है । वाह्य तथा आभ्यन्तर कारणोसे द्रव्यमे जो परिस्पन्दात्मक परिणाम होता है उसका नाम 'क्रिया' है। कालकृत बडापनको 'परत्व' और छोटापनको 'अपरत्व' कहते है। ___ इस प्रकार छहो द्रव्योका यह सक्षिप्त-सार' है, विशेष तथा विस्तृत परिचयके लिये तत्त्वार्थसूत्रकी तत्त्वार्थ राजवातिकादि टीकाओ तथा दूसरे आगमग्रन्थोको देखना चाहिये। इन सब द्रव्योमे सबसे अधिक ध्यानके योग्य आत्मद्रव्य है।
श्रात्मद्रव्य सर्वाधिक ध्येय क्यो ? सति हि ज्ञातरि ज्ञेय ध्येयतां प्रतिपद्यते । ततो ज्ञानस्वरूपोऽयमात्मा ध्येयतमः स्मृत. ॥११८॥ १ दव्व-परिवट्टरूवो जो सो कालो हवेइ, ववहारो।।
परिणामादीलक्खो, वट्टणलक्खो य परमट्ठो ।।२१।। (द्रव्यस०)