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ध्यान - शास्त्र
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'ज्ञाताके होने पर ही ज्ञेय ध्येयताको प्राप्त होता है । इसलिये ज्ञानस्वरूप यह आत्मा ही ध्येयतम - सर्वाधिक ध्येय है।' व्याख्या-- आत्मा सबसे अधिक ध्येय क्यो है ? इस प्रश्नके उत्तरके लिये ही प्रस्तुत पद्यकी सृष्टि हुई जान पडती है । उत्तर बहुत साफ दिया गया है, जिसका स्पष्ट आशय यह है कि जब कोई भी ज्ञेय-वस्तु ज्ञाता विना ध्येयताको प्राप्त नही होती तव यह ज्ञानस्वरूप आत्मा ही सबसे अधिक महत्वका ध्येय ठहरता है ।
आत्मद्रव्य के ध्यानमे पचपरमेष्ठिके ध्यानकी प्रधानता । तत्राऽपि तत्त्वतः पच ध्यातव्या परमेष्ठिनः । चत्वारः सकलास्तेषु सिद्ध स्वामी तु' निष्कलः ॥१९६॥
' श्रात्मा के ध्यानोमें भी वस्तुत. ( व्यवहार ध्यानकी दृष्टिसे) पंच परमेष्ठी ध्यान किये जानेके योग्य है, जिसमे चार- अर्हन्त, आचार्य, उपाध्याय और साघु परमेष्ठी सकल हैं- शरीर साहित हैंऔर सिद्ध परमेष्ठी निष्कल शरीर रहित है तथा स्वामी हैं ।' व्याख्या - पिछले दो पद्योमे जिस पुरुषात्माको ध्येयतम वतलाया गया है उसके भेदोमे यहाँ मुख्यतः पच परमेष्ठियोंके ध्यानकी प्रेरणा की गई है, जिनमे चार सशरीर और सिद्ध अशरीर है । सिद्धका 'स्वामी' विशेषण अपनी खास विशेषता रखता है और इस बातका स्पष्ट सूचक है कि वस्तुत सिद्धात्मा ही स्वात्मसम्पत्तिका पूर्णत . स्वामी होता है- दूसरा कोई नही ।
सिद्धात्मक - ध्येयका स्वरूप
अनन्त दर्शन - ज्ञान- सम्यक्त्वादि गुणात्मकम् । स्वोपात्ताऽनन्तर- त्यक्त - शरीराऽऽकार-धारिणम् ॥१२०॥
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१ मु मे स्वामीति । सि जु सिद्धस्वामी तु । २ मु धारिणः ।