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________________ ११८ तत्त्वानुशासन नही होता अथवा उसकी सभावना नही । आकाश अखण्ड एकद्रव्य होते हुए भी उसके दो भेद कहे जाते है-लोकाकाश और अलोकाकाश । आकाशके जिस बहुमध्यप्रदेशमे जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये पाँच द्रव्य अवलोकित होते है उसे 'लोकाकाश' और शेषको 'अलोकाकाश' कहते है। धर्म और अधर्म दो द्रव्य सदा सारे लोकाकाशको व्याप्त कर स्थिर रहते है, जब कि दूसरे द्रव्योकी स्थिति वैसी नही । कालाणुरूप कालद्रव्य तो लोकाकाशके एक-एक प्रदेशमे स्थिर है और इसलिये लोकाकाशके जितने प्रदेश है उतने ही कालद्रव्य है । एक जीवको अपेक्षा जीव लोकके एक असख्यातवें भागसे लेकर दो आदि असख्येय भागोमे व्याप्त होता है और लोकपूर्ण-समुद्घातके समय सारे लोकाकाशको व्याप्त कर तिष्ठता है । नाना जीवोकी अपेक्षा सारा लोकाकाश जीवोसे भरा है । पुद्गल द्रव्यके अणु और स्कन्ध दो भेद है। अणुका अवगाहन-क्षेत्र आकाशका एक प्रदेश है, इयणुकादिरूप स्कन्धोका अवगाह्य-क्षेत्र लोकाकाशके द्विप्रदेशादिकोमे है। द्रव्यका लक्षण सत् है और सत् उसे कहते है जो प्रतिक्षण ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मक हो अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यसे युक्त हो। जीवद्रव्यका लक्षण उपयोग है, जो ज्ञान-दर्शनके भेदसे दो प्रकारका है और इसलिये जीवद्रव्यको 'ज्ञान-दर्शनलक्षण' भी कहा जाता है । जीवोंके ससारी और मुक्त ऐसे दो भेद हैं, ससारी जीव त्रस और स्थावरके भेदसे दो भेदोमे विभक्त हैं, जिनमे पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पतिकायके एकेन्द्रियजीव स्थावर कहलाते और शेष द्वीन्द्रियादि जीव 'त्रस' कहे जाते है। सजीवोका निवासस्थान लोकके मध्यवर्तिनी त्रसनाडी है और स्थावरजीव त्रसनाडी और उससे बाहर सारे ही लोकमे निवास करते है।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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