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तत्त्वानुशासन
भाव-ध्येय अर्थ-व्यंजन-पर्यायाः मूर्ताऽमूर्ता गुणाश्च ये। यत्र द्रव्ये यथाऽवस्थास्तांश्च तत्र तथा स्मरेत् ॥११६॥
जो अर्थ तथा व्यजनपर्यायें और मंतिक तथा अमतिक गुण जिस द्रव्यमें जैसे अवस्थित है उनको वहाँ उसी रूपमे ध्याता चिन्तन करे-यह भावध्येयका स्वरूप है।'
व्याख्या-पिछ न जिस पद्य (१००) मे गुणपर्यायवान्को द्रव्यध्येय बतलाया है उसीमे मुख्यत गुण तथा पर्यायके ध्यानको भावध्येय सूचित किया है। यहाँ भावध्येयको स्पष्ट करते हुए पर्यायोके दो भेद किये हैं-एक अर्थपर्याय और दूसरी व्यजनपर्याय ये पर्याये और गुण, जो सामान्य तथा विशेषको दृष्टिसे अनेक प्रकारके होते है, जिस द्रव्यमे जहाँ जिस प्रकारसे अवस्थित हो उस द्रव्यमे वहाँ उसो प्रकारसे उनका जो ध्यान है वह सब भावध्येय है। ___ अर्थपर्याये छहो द्रव्योमे होती है, जब कि व्यजनपर्याये केवल जीव तथा पुद्गल द्रव्योसे ही सम्बन्ध रखती है । ये व्यजनपर्याये स्थूल, वाग्गम्य, प्रतिक्षण विनाश-रहित तथा कालान्तरस्थायी होती है, जब कि अर्थपर्याय सब सूक्ष्म तथा प्रतिक्षणक्षयो होती है।
द्रव्यके छह भेद और उनमें ध्येयतम आत्मा पुरुष. पुद्गल. कालो धर्माऽधर्मों तथाऽम्बरम् । षड्विधं द्रव्यमाख्यात' तत्र ध्येयतमः पुमान् ॥११७॥
१. मे स्मरे । २. व्यजनेन तु सम्बद्धौ द्वावन्यौ जीव-पुद्गलौ ॥ (आलापपद्धति) ३. मूर्तो व्यजनपर्यायो वाग्गभ्योऽनश्वर स्थिर.।।
सूक्ष्म प्रतिक्षणध्वसी पर्यायश्चाऽर्थ गोचर ॥ ज्ञानार्णव ६-४५ ४. मु मे माम्नात ।