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ध्यान - शास्त्र
सहवृत्ता गुणास्तत्र पर्यायाः क्रमवर्तिनः । स्यादेतदात्मकं द्रव्यमेते च स्युस्तदात्मका ॥ ११४॥ 'द्रव्यमे गुण सहवर्ती - एक साथ युगपत् प्रवृत्त होनेवाले - और पर्यायें क्रमवर्ती - क्रमश प्रवृत्त होनेवाली - है । द्रव्य इन गुण- -पर्यायात्मक है और ये गुण-पर्याय द्रव्यात्मक है - द्रव्यसे गुण- पर्याय जुदे नही और न गुण-पर्यायोसे द्रव्य कोई जुदी वस्तु है ।'
व्याख्या - पिछले एक पद्य (१००) मे 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' इस वाक्यके द्वारा द्रव्य उसे बतलाया है जो गुणो तथा पर्यायोको आत्मसात् किये हुए हो। इस पद्यमे गुणो तथा पर्यायोका स्वरूप बतलानेके साथ-साथ इस बात को स्पष्ट किया गया है कि कैसे द्रव्य गुण-पर्यायवान् है । जो द्रव्यमे सदा सहभावी हैं और एकसाथ प्रवृत्त होते हैं उन्हे गुण कहते है, जो द्रव्यमे क्रमभावी है और क्रमश प्रवृत्ति करते हैं उन्हे पर्याय कहते है । ये गुण और पर्याय द्रव्यात्मक है और द्रव्य इन गुण पर्यायात्मक है - एकसे दूसरा जुदा नही, इसीसे द्रव्यको गुण- पर्यायवान् कहा गया है ।
एवंविधमिदं वस्तु स्थित्युत्पत्ति-व्ययात्मकम् । प्रतिक्षणमनाद्यन्त सर्व ध्येयं यथास्थितम् ॥११५॥
' इस प्रकार यह द्रव्य नामकी वस्तु जो प्रतिक्षण स्थिति, उत्पत्ति और व्यय रूप है तथा अनादि-निधन है वह सब यथास्थितरूपमे ध्येय है— ध्यानका विषय है ।'
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व्याख्या - यहां, द्रव्य ध्येयके कथनका उपसंहार करते हुए, यह सार निकाला है कि प्रत्येक द्रव्य प्रतिक्षण ध्रौव्य, उत्पाद और व्ययरूप है, आदि - अन्तसे रहित है और जिस रूपसे अवस्थित है उसी रूपमे ध्यानका विषय है- अन्य रूपमें नही ।