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तत्त्वानुशासन कभी उत्पन्न नहीं हुआ और न कभी नाशको प्राप्त होगा। हाँ, द्रव्योमे जो स्वपर्याये हैं वे जलमें जलकल्लोलोकी तरह प्रतिक्षण ऊपरको उठती तथा नोचेको वैठती रहती हैं, यही द्रव्यका प्रतिक्षरण स्वाश्रित उत्पाद-व्यय है, जो उसके लक्षणका अंग बना हुआ है।
'स्वपर्याया' पद भो यहां अपनी खास विशेपता रखता है और वह पराथित-पर्यायोके व्यवच्छेदका सूचक है। जो पर्यायें परके निमित्तसे अथवा परके मिश्रणसे उत्पन्न होती हैं उनका स्वपर्यायोंमे ग्रहण नहीं है, क्योकि स्वपर्याय द्रव्यमे सदा अवस्थित और इसलिए नित्य होती हैं, भले ही उन्हे उदय, अनुदय तथा उदीर्णकी दृष्टिसे भूत, भावी तथा वर्तमान क्यो न कहा जाय ।
यद्विवृत यथापूर्वर यच्च पश्चाद्विवय॑ति । विवर्तते यदत्राऽद्य तदेवेदमिदं च तत् ॥११३॥
'जो यथापूर्व-पूर्वक्रमानुसार-पहले (गुण-पर्यायोंके साथ) विवर्तित हुआ, जो पीछे विवर्तित होगा और जो इस समय यहाँ विवर्तित हो रहा है वही सब यह (द्रव्य) है और यही उन सब
व्याख्या-यहाँ द्रव्यका अपने त्रिकालवर्ती गुण-पर्यायोंके साथ और गुण-पर्यायोका अपने सदा ध्रौव्यरूपसे स्थित रहनेवाले द्रव्यके साथ अभेद प्रदर्शित किया गया है कहा गया है कि जो वे हैं वही यह द्रव्य है और जो यह है वही वे गुण-पर्यायें हैं।
१. अथवा भाविनो भूताः स्वपर्यायास्तदात्मकाः । ___ आसते द्रव्यरूपेण सर्वद्रव्येषु सर्वदा ॥ (तत्त्वानु० १९२) २. ज तयापूर्व।