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ध्यान - शास्त्र
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हुई है उसीको यहाँ दूसरे स्पष्ट शब्दोमे द्रव्य ध्येय का विषय बनाते हुए निर्दिष्ट किया गया है ।
याथात्म्य-तत्त्व-स्वरूप
चेतनोऽचेतनो वाऽर्थो यो यथैव व्यवस्थितः । तथैव तस्य यो भावो याथात्म्यं तत्त्वमुच्यते ॥ १११॥
'जो चेतन या श्रचेतन पदार्थ जिस प्रकारसे व्यवस्थित है उसका उसी प्रकारसे जो भाव है उसको 'याथात्म्य' तथा 'तत्त्व' कहते हैं ।'
व्याख्या - यहाँ 'अर्थ' शब्द द्रव्यका वाचक है, उसी प्रकार जिस प्रकार कि वह स्वामी समन्तभद्र के 'सदिहार्थ रूपम्' इस वाक्यमे उसका वाचक है । उस द्रव्यके मूल दो भेद हैं- एक चेतन, दूसरा अचेतन । कोई भी द्रव्य, चाहे वह चेतन हो या अचेतन, जिस रूपसे व्यवस्थित है उस रूपसे ही उसका जो भाव है - परिणाम है— उसको 'याथात्म्य' कहते हैं और उसीका नाम 'तत्त्व' है । जो कि 'तस्य भावस्तत्त्व'' इस निरुक्तिको चरितार्थ करता है ।
अनादि-निधने द्रव्ये स्वपर्यायाः प्रतिक्षणम् । उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति जलकल्लोलवज्जले ॥ ११२ ॥
'द्रव्य, जो कि अनादिनिधन है - आदि-अन्तसे रहित हैउसमे प्रतिक्षण स्वपर्यायें जलमे जल - कल्लोलोकी तरह उपजती तथा विनशती रहती हैं ।'
व्याख्या -- यहाँ द्रव्यका 'अनादिनिधन' विशेषण अपनी खास .... विशेषता रखता है और इस बातको सूचित करता है कि कोई द्रव्य
९. तस्य भावस्तत्त्वम्, तस्य कस्य ? योऽर्थो यथावस्थितस्तथा तस्य भवनमित्यर्थः । (सर्वार्थ० १-२ )