________________
११०
तत्त्वानुशासन यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि आठो वर्गोके उक्त अलग-अलग अक्षर ही मत्र नहीं है किन्तु उनके परस्पर सयोगसे बने हुए सयुक्ताक्षर भी मत्र होते है, जैसे ऊँ, ह्री, श्री, क्ली अहं आदि । ऐसे मत्रोकी सस्या मूलाक्षर मत्रोंसे, जो अनादिसिद्धान्तप्रसिद्ध-वर्णमात्रिकाके रूपमे स्थित है, बहुत अधिक है। अनादिसिद्धान्त-प्रसिद्ध वर्णमातृकाके ध्यानकी प्रेरणा करते हुए उसे नि शेष शब्द-विन्यासकी जन्मभूमि कहा गया है
ध्यायेदनादिसिद्धान्त-प्रसिद्ध-वर्णमातकाम् । नि शेषशब्दविन्यास-जन्मभूमि जगन्नुताम् ।।
-ज्ञानार्णव ३८-२ । मत्रसारसमुच्चय अ०२
नामध्येयका उपसहार इत्यादीन्मंत्रिणो मंत्रानहन्मंत्र-पुरस्सरान् । ध्यायन्ति यदिह स्पष्टं नामध्येयमवैहि तत् ॥१०॥ 'इन 'अहं' मत्रपुरस्सर मत्रोको आदि लेकर और भी मंत्र हैं जिन्हे नामध्येयरूपसे मांत्रिक ध्याते हैं, उन सबको भी स्पष्टरूपसे नाम-ध्येय समझो।'
व्याख्या-नाम-ध्येयके रूपमे कुछ मत्रोका उल्लेख करनेके अनन्तर यहाँ उसी प्रकारके दूसरे मत्रोको भी नाम-ध्येयके रूपमे समझनेकी प्रेरणा की गई है। ऐसे वहुतसे मत्र है, जो आर्ष (महापुराण), ज्ञानार्णव, योगशास्त्र तथा विद्यानुशासनादि ग्रन्थोंसे जाने जा सकते हैं । द्रव्यसग्रहमें ऐसे कुछ मत्रोकी सूचना निम्न गाथा-द्वारा की गई है
पण तीस सोल छप्पण चदु दुगमेग च जवह झाएह । परमेट्ठिवाचयारण अण्णं च गुरूवएसेण ॥४६॥