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ध्यान-शास्त्र
१०६ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म, य र ल व (अन्तस्थ), श ष स ह (ऊज्माण), ये ३३ अक्षर व्यजन कहे जाते है, और ये क च ट त प य श ऐसे सात वर्गोमे विभाजित है। स्वरोका एक वर्ग मिलाकर वर्गों की पूरी सख्या आठ होजाती है, जिसको सूचना पिछले एक पद्य (१०५) मे 'वर्गः पूरितमष्टभिः' इस वाक्यके द्वारा की गई है। इन अक्षरोके अलग अलग मडल हैस्वर तथा ऊष्मवर्ण जलमडलके, कवर्गी तथा अन्तस्थवर्ण अग्निमडलके, च-प-वर्गीवर्ण पृथ्वीमडलके और ट-त-वर्गोवर्ण वायुमडलके हैं । इन मडलगत अक्षरोकी जाति क्रमश ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र है तथा रग क्रमश श्वेत, रक्त, पीत और श्याम है। इनमे जलमडल कलश या अर्धचन्द्रके आकार, अग्निमडल त्रिकोण, पृथ्वीमडल चतुरस्र और वायुमडल गोलाकार होता है । इन मूलाक्षरोकी शक्तियोका वर्णन विद्यातुशासन ग्रन्थमे पाया जाता है। यहाँ इन सब अक्षरोको मत्र कहा गया है सो ठीक है, 'अमत्रमक्षर नास्ति नास्ति मूलमनौषध' इस प्रसिद्ध सिद्धान्तोक्तिके अनुसार जिस प्रकार ऐसो कोई मूल (जड) नही जो औषधिके काममे न आती हो, उसी प्रकार ऐसा कोई अक्षर नहीं जो मत्रके काममे न आता हो, परन्तु प्रत्येक मूलसे औषधिका काम लेनेवाला जिस प्रकार दुर्लभ है उसी प्रकार प्रत्येक अक्षरकी मत्रके रूपमे योजना करनेवाला भो दुर्लभ है। इसीसे 'योजकस्तत्र दुर्लभ ' यह वाक्य भी उक्त मिद्धान्तोक्तिके साथ कहा गया है। १ स्वरोज्माणो द्विजा श्वेता अम्बुमडलसस्थिता । क्वन्तस्था भूभुजो रक्तास्तेजोमडलमध्यगा ॥४॥ चु-पू वैश्यान्वयो पीता पृथ्वीमडलभागिनी टु-तू कृष्णत्विपो शूद्रो वायुमडलसभवो ॥५॥
-विद्यानुशासन परि० २