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ध्यान-शास्त्र इसमे पेंतीस, सोलह, छह, पाँच, चार, दो और एक अक्षरवाले प्रसिद्ध मत्रोकी सूचना की गई है, साथ ही परमेष्ठिवाचक दूसरे मत्रोको भी गुरु-उपदेशानुसार जपने तथा ध्यानेकी प्रेरणा की गई है। पेंतीस अक्षरोका प्रसिद्ध मत्र 'गमो अरिहतारण' णमो सिद्धारण, रगमो पाइरियाणं, गमो उवज्झायारण, गमो लोए सव्वसाहूण' है, जिसे णमोकारमत्र, मूलमत्र तथा अपराजितमत्र भी कहते हैं, सोलह अक्षरका मत्र 'अरिहत सिद्ध आईरिय उवज्झाय साहू' तथा 'अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः; छह अक्षरोके मत्र 'अरहत सिद्ध, अहद्भ्यः नमोस्तु, ॐ नम सिद्धन्यः, नमोऽर्हत्सिद्धेभ्यः'; पचाक्षर-मत्र 'रामो सिद्धारण, असिआउसा, नमः सिद्ध भ्य'; चतुरक्षर मत्र 'अरहत'; दो अक्षरो के मत्र 'सिद्ध, अहं' तथा एक अक्षरके मत्र 'ॐ ह्रीं ह्र तथा अकारादि' हैं। दूसरे मत्रोमे पापभक्षिणी विद्याका मत्र सुप्रसिद्ध है और वह इस प्रकार हैं -
ॐ अर्हन्मुखकमलवासिनि पापात्मक्षयकरि श्रुतज्ञानज्वालासहस्रप्रज्वलिते सरस्वति मत्पाप हन हन दह दह क्षां क्षों क्ष क्षी क्षः क्षीरवरधवले अमृतसभवे व ब हूं हूं स्वाहा ।
स्थापना-ध्येय जिनेन्द्र-प्रतिबिम्बानि कृत्रिमाण्यकृतानि च । यथोक्तान्यागमे तानि तथा ध्यायेदशकितम् ।।१०।। 'जिनेन्द्रकी जो प्रतिमाएँ कृत्रिम और अकृत्रिम हैं तथा आगममे जिस रूपमे कही गई है उन्हे उसी रूपमे ध्याता निशंक होकर अपने ध्यानका विषय बनावे-यह स्थापनाध्येय है।'
व्याख्या-यहाँ जिनेन्द्र-प्रतिबिम्बोको स्थापना-ध्येयमे परिगणित किया गया है और उसके दो भेदोकी सूचना की गई है
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