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ध्यान-शास्त्र
१०५ दोनो प्रकारके हैं तब रन्ध्रके किस भागपर और कैसे अक्षरका विन्यास किया जाय, यह समस्या फिर भी हल होनेके लिये रह जाती है । अत इस विषयमे सम्यगुरूपदेश प्राप्त होना ही चाहिये।
हृदयेऽष्टदलं पद्म वगैः पूरितमष्टभि.। दलेषु कणिकायां च नाम्नाऽधिष्ठितमहताम् ॥१०५ गरणभृद्वलयोपेत त्रि.परीतं च मायया । क्षौणी-मण्डल-मध्यस्थ ध्यायेदभ्यर्च येच्च तत् ॥१०६
'(ध्याता) हृदयमे पृथ्वीमण्डलके मध्यस्थित आठ दलके कमलको दलोके पाठ वर्गोसे-स्वर, क, च, ट, त, प, य, श, वर्गके अक्षरोसे-पूरित, और कणिकामे 'अहं' नामसे अधिष्ठित, गणधर-वलयसे युक्त और मायासे त्रि परीत-ह्री बीजाक्षरको तीन परिक्रमाओसे वेष्ठित-रूपमे ध्यावे और उसकी पूजा करे ।
व्याख्या-यहाँ सारे मन्त्राक्षरोसे पूरित जिस अष्टदल कमलके हृदयमे ध्यान तथा पूजनका विधान किया गया है उसके विषयमें तीन बातें और जाननेकी हैं-एक तो यह कि वह जिस गणधरवलयसे युक्त है उसका रूप क्या है, दूसरे 'ही' की तीन परिक्रमाओका अभिप्राय क्या है, और तीसरे उस पृथ्वीमण्डलका रूप क्या है जिसके मध्यमे वह गणधरवलयादिसहित स्थित हुमा ध्यानका विषय होता है । पृथ्वीमण्डल चतुरस्र, मध्यमें दो वज्रोसे परस्पर विद्ध, मध्यमे अथवा वज्रकोणोपर पूर्वादि चारो महादिशाओमें पृथ्वीबीज 'क्षि' अक्षरसे युक्त, मण्डलके चारो कोणो पर 'ल' अक्षरसे युक्त और पीतवर्ण । होता है। जैसा कि विद्यानुशासनके निम्न पद्योसे प्रकट है :