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तत्त्वानुशासन
सूचित किया है । साथ ही यह भी सूचित किया है कि इस मत्रके सात अक्षरोको मुखके सात छिद्रोमे गुरुके उपदेशानुसार स्थापित करके ध्यान करनेसे दूरसे सुनने, दूरसे देखने, दूरसे सूंघने और दूरसे रसास्वादनकी शक्ति प्राप्त होती है। सात छिद्रोमे दो कानोके, दो आँखोके, दो नाकके नथनोके और एक रसनालयका है। इन छिद्रोमेसे कौनसे छिद्र में और उसके बहिमुख या अन्तर्मुख किस प्रदेश या भागमे कौनसा अक्षर किस प्रकारसे स्थापित किया जाय, यह गुरु-उपदेश अभी तक प्राप्त नही हुआ। कुछ मुनियोसे पूछने पर भी कोई पता नहीं चल सका । अत यह सब अभी रहस्यमय है। जिन योगियो अथवा विद्वानोको इस गुप्त रहस्यका पता हो उन्हे उसको लोकहितकी दृष्टिसे प्रकट करनेकी कृपा करनी चाहिये।
जहाँ तक मैंने इस विषयमें विचार किया है, मुझे पद्यमे प्रयुक्त हुए 'इच्छन् दूरश्रवादिकम्' पदो परसे यह आभास होता है कि चूकि इसमे श्रोत्रेन्द्रियके शक्ति-विकासकी बातको पहले लिया गया है तब 'आदि' शब्दसे पश्चात्आनुपूर्वीके क्रमानुसार नेत्र, नासिका और रसना इन्द्रियके विकासको बात क्रमश आती है और इसलिए अक्षरोका विन्यास भी इसी क्रमसे होना चाहिये अर्थात् कानोके रन्ध्रोमे प्रथम दो अक्षर, नेत्रके रन्ध्रोमे द्वितीय दो अक्षर, नासिकाके रन्ध्रोमे तृतीय दो अक्षर स्थापित किये जाने चाहिये और उनकी स्थापनाका क्रम वामसे दक्षिणकी ओर रहना चाहिये-वामकर्ण-रन्ध्रमे यदि 'ण' तो दक्षिण कर्णरन्ध्रमे 'मो' होना चाहिये , क्योकि वर्णो की दक्षिणगति है । शेष सातवें 'ण' अक्षरकी स्थापना रसना इन्द्रियके रन्ध्रमार्गमे की जानी चाहिये, ऐसा प्रतीत होता है। निश्चित रूपसे कुछ कहा नहीं जा सकता। यदि यह कल्पना ठोक हो तो चूंकि इन चारो इन्द्रियोके रन्ध्र बहिर्मुख और अन्तर्मुख