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ध्यान-शास्त्र
१०३ केवल ऐसे पांच ज्ञानोके वाचक है। इन अक्षरोका ऐसे ज्योतिष्मान् अक्षरोके रूपमे ध्यान किया जाता है जिनसे किरणें ऊपरको उठ रही हों। इन अक्षरोकी स्थापना भी चार पत्रवाले हृदयस्थ कमलपर उसी प्रकार की जाती है जिस प्रकार कि अ-सि-आ-उ-सा-की की जाती है। इन अक्षरोको भी पूर्ववत् अपने-अपने स्थानोपर प्रदक्षिणा करते हुए ध्यानका विषय बनाना चाहिये। इन अक्षरोके ध्यानसे मति आदि ज्ञानोकी सिद्धिमे सहायता मिलती है । परन्तु ये अक्षर मति, श्रुत, अवधि, मन पर्यय और केवल इन पाँच ज्ञानोके वाचक किस दृष्टिसे है, यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका । 'अ'कार अभिनिवोधका वाचक हो सकता है, जो कि मतिज्ञानका नामान्तर है , 'इ'कार 'इरा' का वाचक हो सकता है, जिसका अर्थ वाणी है और इसलिये उससे श्रुतज्ञानका अर्थ लिया जा सकता है; 'उ'कार 'उहि'-अवधिका वाचक हो सकता है । परन्तु ए'कार मन पर्ययका और 'ओ'कार केवलज्ञानका वाचक कैसे हैं, यह कुछ समझमे नही बैठा। विशेष ज्ञानी इस मत्र-विषयको स्वय समझ ले।
सप्ताक्षरं महामन्त्र मुख-रन्ध्रषु सप्तसु ।
गुरूपदेशतो ध्यायेदिच्छन् दूरश्रवादिकम् ॥१०४॥ __ 'सप्ताक्षरवाला जा महामन्त्र-णमो अरहता है, उसे गुरुके उपदेशानुसार मुखके सात रन्ध्रो-छिद्रोमे स्थापित करके वह ध्याता ध्यान करे जो दूरसे सुनने-देखने आदिरूप आत्मशक्तियोको विकसित करना अथवा तद्विषयक दूरश्रवादि-ऋद्धियोको प्राप्त करना चाहता है।'
व्याख्या-जिस पचणमोकाररूप मत्रके एकाग्रचित्तसे जपको परम स्वाध्याय बतलाया गया है (८०) उसके पचपदोंमेसे प्रथमपद 'णमो अरहताण' को यहाँ सप्ताक्षर-महामत्र