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________________ ध्यान-शास्त्र ' (भिन्नरूप व्यवहार-ध्यानमे) मुनि आज्ञा, अपाय, विपाक और लोक-संस्थानका आगमके अनुसार चित्तकी एकाग्रताके साथ चिन्तन करे।' व्याख्या-यहाँ भिन्नध्यानके विषयभूत आज्ञाविचय, अपाय. विचय, विपाकविचय और लोकसस्थानविचय नामक धर्म्यध्या नके चार भेदो' की सूचना करते हुए उनके आगमानुसार स्वरूपचिन्तनकी प्रेरणा की गई है। यद्यपि यह प्रेरणा मुख्यत मुनियोको लक्ष्य करके की गई है परन्तु गौणत देशवतो श्रावक और अविरतसम्यग्दृष्टि भी उसके लक्ष्यभूत हैं, जो धर्म्यध्यानके अधिकारी हैं। धर्म्यध्यानके जिन प्रकारोका उल्लेख पद्य ५१ से ५५ तक किया गया है उनसे भिन्न ये चार भेद आगम-परम्पराके अनुसार कहे गये हैं, जिसे 'आम्नाय' भी कहते हैं । और इसलिये इनका अनुष्ठान जैन आम्नायके अनुसार ही होना चाहिये, जिसके लिये 'यथागम' वाक्यका प्रयोग यहाँ खास तौरसे किया गया है। धर्म्यध्यानके ध्येय-दृष्टिसे प्रकल्पित हुए इन चार भेदोमे प्रथमभेदगत 'आज्ञा' शब्द सर्वज्ञ-वीतराग-जिन-प्रणीत आगमके उस आदेश एव निर्देशका वाचक है जिसका विषय सूक्ष्म है, प्रत्यक्ष तथा अनुमान-प्रमाणके गोचर नही और किसी भी युक्तिसे बाधित नही होता, जैसे धर्मास्तिकायादि द्रव्योका कथन। ऐसे आज्ञाग्राह्यविषयोका जो विचार, विचय, विवेक अथवा सचिन्तन है उसे १ आज्ञा-पाय-विपाक-सस्थानविचयाय (स्मृतिसमन्वाहार ) धर्म्यम् । (त० सू० ६-३६) २ तदाज्ञापाय-सस्थान-विपाक-विचयात्मकम् । चतुर्विकल्पमाम्नात ध्यानमाम्नायवेदिभि ॥ (आर्ष २१-१३४)
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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