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तत्त्वानुशासन आज्ञाविचय-धर्म्यध्यान कहते है। द्वितीयभेदगत 'अपाय' शब्द तापत्रयादिरूप उन दु खो-कप्टो तथा भयादिकका, जिनसे सासारिक प्राणी पीडित है, और उनसे छूटनेके प्रतीकारात्मक अथवा कल्याणात्मक उपायोका गचक है। ऐसे सोपाय अपायका जो विवेचन अथवा सचिन्तन है उसे अपायविचय-धबध्यान कहते है। तृतीयभेदगत 'त्रिपाक' शब्द शुभ-अशुभ कर्मोके फलका वाचक है। इस कर्मफलके चिन्तनका नाम विपाकविचय है, जिसमे ज्ञानावरणादि-कर्मोको मूलोत्तर-प्रकृतियाँ, उनका बन्ध-उदय-सत्व-उदीरणा-सक्रमण और मोक्षादि सवका चिन्तन आजाता है। चतुर्थभेद तीनो लोकके आकारप्रकारादिके सचिन्तनरूप है, जिसमे तदन्तर्गत पदार्थोका चिन्तन और द्वादशानुप्रेक्षाका चिन्तन भी शामिल है। इन चारो ध्यानोका विशेष जाननेके लिये मूलाचार, आदि आगमग्रन्थो' और तत्त्वार्थसूत्रको तत्त्वार्थराजवातिकादि३ टीकाओको देखना चाहिये। १ आत्मप्रबोधके निम्न दो पद्योमे इस आज्ञाविचय-धय॑ध्यानका अच्छा सार खीचा गया हैं:
सत्तैका द्विविधो नय शिवपथस्त्रेधा चतुर्धा गतिः काया पच पडगिनां च निचया सा सप्तभगीति च। अप्टो सिद्धगुणा पदार्थनवक धर्म दशाग जिन प्राहैकादशदेशसयतदशा सद्वादशाग तप ।।६।। सम्यकप्रेक्षा चक्षुषा वीक्ष्यमाणो यद्याक्ष सर्ववेद्याचचक्षे ।
तत्ताहक्ष चिन्तयन्वस्तु यायादाज्ञाधर्म्यध्यानमुद्रा मुनीन्द्रः ॥६०॥ २. मूलाचार अ० ५, २०१-२०५। आप २१,१३४-१५१ ३ तत्त्वार्थवा० अ० ६, सू० २८-४४ ।