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तत्त्वानुशासन व्याख्या-निश्चयनयाश्रित स्वावलम्बी-ध्यानको अभिन्नध्यान और व्यवहारनयाथित परावलम्बी-ध्यानको 'भिन्नध्यान कहते हैं। भिन्नव्यानमे जव अभ्यास परिपक्व हो जाता है तव अभिन्नका ध्यान निराकुलतापूर्वक ठीक बनता है। इसी वातको 'आत्मप्रवोध' ग्रन्थमे "सालम्वनाऽभ्यासनिवद्धलक्ष्यो भवेनिरालम्बनयोगयोग्य" इस वाक्यके द्वारा स्पष्ट किया है । अत पहले आत्मस्वरूपसे भिन्न अन्य वस्तुओंके ध्यानको परिपुष्ट वनाना चाहिये, जिससे अभ्यासो चाहे जिसके चित्रको अपने हृदय-पटल पर अकित करसके और उसे अधिकसे अधिक समय तक स्थिर रखनेमे समर्थ हो सके। इस प्रकारका अभ्यास वढ जानेपर आत्मध्यानरूप जो अभिन्नध्यान है वह बिना किसी आकुलताके सहज ही बन सकेगा। जो ध्याता भिन्नध्यानके अभ्यासमे परिपक्व हुए विना एकदम आत्मध्यानमे प्रवृत्त होता है वह प्राय अनेक आकुलताओ तथा आपदाओका शिकार बनता है। अत. ध्यानका राजमार्ग यही है कि पहले व्यवहारनयाथित भिन्न (सालम्बन) ध्यानके अभ्यासको बढाया जाय । तत्पश्चात् निश्चयनयाश्रित अभिन्न (निरालम्बन) ध्यानके द्वारा अपने आत्माके शुद्ध-स्वरूपमे लीन हुआ जाय । भिन्नध्यानमे परमात्माका ध्यान सर्वोपरि मुख्य है, जिसके सकल और निष्कल ऐसे दो भेद हैं-सकल-परमात्मा अरहत और निष्कल-परमात्मा सिद्ध कहलाते है ।
भिन्नरूप धर्म्यघ्यानके चार ध्येयोकी सूचना आज्ञाऽपायौं विपाकं च संस्थान भुवनस्य च । यथागममविक्षिप्त-चेतसा चिन्तयेन्मुनिः ॥१८॥ १. दुविहो तह परमप्पा सयलो तह णिक्कलो त्ति णायव्वो।
सकलो अरुहसरूवो सिद्धो पुरण णिक्कलो भरिणओ ॥३२॥ २ मु मे आज्ञापायो।
--ज्ञानसार