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ध्यान-शास्त्र म्बनरूप है और दूसरा व्यवहारध्यान परके अवलम्बनरूप है।'
व्याख्या-यहाँ निश्चय और व्यवहार दोनो नयोकी दृष्टिसे ध्यानके आगमानुसार दो भेद करके एकको स्वरूपावलम्बी और दूसरेको परावलम्बी बतलाया है । स्वरूपावलम्बी ध्यानमे आत्माके शुद्धस्वरूपके सिवाय दूसरी कोई वस्तु ध्यानका विषय नही रहती, जब कि परावलम्बी ध्यानमे दूसरी वस्तुओका अवलम्बन लिया जाता है उन्हे ध्यानका विषय (ध्येय) बनाया जाता है। निश्चयनयका स्वरूप ही 'अभिन्नकर्तृ-कर्मादि-विषयक' है और इसलिये उसमे किसी दूसरेका अवलम्बन लिया ही नही जा सकता-ध्याता भिन्न, ध्येय भिन्न और करणादिक भिन्न हो, ऐसा उसमे कुछ भी नही बनता-और इसीलिये उसे निरालम्ब तथा दूसरेको सालम्ब ध्यान भी कहा जाता है, जैसाकि श्रीपद्मसिंह मुनिके ज्ञानसारगत निम्न वाक्यसे भी जाना जाता है
कि बहुणा सालंब झाण परमत्थरणएण पाऊणं । परिहरह कुरगह पच्छा झारणभासं निरालंबं ॥३७॥
इससे पूर्वसे किये जाने वाले व्यवहारनयाश्रित सालम्बध्यानको छोड कर निरालम्ब-ध्यानके अभ्यासकी प्रेरणा की गई है, और इससे दोनो ध्यानोके अभ्यासका क्रम भी स्पष्ट हो जाता है। निश्चयकी अभिन्न, व्यवहारकी भिन्न सज्ञा और
भिन्न ध्यानाभ्यासकी उपयोगिता अभिन्नमाद्यमन्यत्तु भिन्नं तत्तावदुच्यते । भिन्ने तु विहिताऽभ्यासोऽभिन्न ध्यायत्यनाकुलः॥१७॥
'अथवा पहला निश्चयनयावलम्बी ध्यान 'अभिन्न' और दूसरा व्यवहारनयावलम्बी ध्यान 'भिन्न' कहा जाता है। जो 'भिन्न' ध्यानमे अभ्यास कर लेता है वह निराकुल हुमा 'अभिन्न' ध्यानको ध्यानेमे प्रवृत्त होता है।' १. मु मे भिन्ने हि ।