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तत्त्वानुशासन वार-वार पलक झपकना, ये सव भी न होकर नाकके अग्रभाग पर दृष्टि रखकर तिष्ठना चाहिये।'
यहाँ इतना और भी जान लेना चाहिये कि यशस्तिलकके उक्त पहले पद्यमे सुखासनका जो सामान्य रूप दिया है वह अन्यत्र (योगशास्त्र, अमितगति-श्रावकाचार' आदि ग्रन्थोमे) वर्णित पर्यडासनके रूपसे मिलता-जुलता है । भेद इतना ही है कि अन्यत्र पदोको जघाओके नीचे-ऊपर (एक पदको नीचे दूसरेको ऊपर) रखनेकी व्यवस्था है। तब यशस्तिलककर्ता सोमदेवाचार्यने उन्हे ऊर्वो (Thighs) के नीचे-ऊपर रखनेकी सूचना की है, और यह एक प्रकारका साधारणसा मतभेद है। इस मतभेदके साथ सोमदेवजीके सुखासनको पर्यङ्कासन ही समझना चाहिये, जिसे श्रीजिनसेनाचार्यने अधिक सुखासन बतलाया है। सुखासनके जो विशेष लक्षण यशस्तिलकमे दिये गये हैं वे प्राय दूसरे पद्मासनादिकसे भी सम्बन्ध रखते हैं, उन्हे सुखासनके साथ दिये जानेका अभिप्राय इतना ही जान पडता है कि सुखासनको कोई यो ही ऊरुके नोचे-ऊपर पैरोको रखकर जैसे-तैसे सुखपूर्वक बैठ जानेका नाम ही न समझले । उसे ध्यानासनकी दृष्टिसे ध्यानविधि-परक कुछ अन्य बातोको भी ध्यानमे रखना होगा।
नय-दृष्टिसे ध्यानके दो भेद निश्चयाद् व्यवहाराच्च ध्यानं द्विविधमागमे । स्वरूपालम्बनं पूर्व परालम्बनमुत्तरम् ॥६६॥ 'जैन आगममें ध्यानको निश्चयनय और व्यवहारनयके भेदसे दो प्रकारका कहा गया है -पहला निश्चयध्यान स्वरूपके अवल१ अमितगतिश्रावकाचारका पयंकासन-लक्षण
बुधरुपर्यधोभागे जघयोरुभयोरपि । समस्तयों. कृते ज्ञेय पर्यकासनमासनम् ।।८-४६।।