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________________ तत्त्वानुशासन ___ कायोत्सर्गको ३२ दोषोसे रहित बतलाया है, जिनका स्वरूप मूलाचार, अनगारधर्मामृतादि दूसरे ग्रन्थोसे जाना जा सकता है। __ इन्द्रिय-लुटेरे अनादि अविद्याके वश विना किसी विशेप प्रयत्नके स्वत विषयोकी ओर प्रवृत्त होते है । अत उन्हे प्रयत्नपूर्वक अपने विषयोंसे हटाकर और चिन्ताको अन्य सब ओरसे खीचकर ध्येय-वस्तुकी ओर लगानेकी इस परिकर्ममें विशेष प्रेरणा की गई है । साथ ही यह भी प्रेरणा की गई है कि ध्याताको निद्रारहित, भयरहित और आलस्यरहित होकर आत्म-विशुद्धिके लिये स्वरूप तथा पररूपका ध्यान करना चाहिए । पररूपमे मुख्यत. पचपरमेष्ठिका ध्यान समाविष्ट है, जिसका ग्रन्थमें अन्यत्र (पद्य ११९ मे) निर्देश है। निद्रा, भय और आलस्य तीनो ध्यानकी सिद्धिमे प्रबल बाधक हैं अतः सतत अभ्यासके द्वारा इनको जीतनेका पूरा प्रयत्न किया जाना चाहिये। परिकर्ममे और भी कितनी ही बाते शामिल होती हैं, जिनमें कुछका समावेश ध्याताके स्वरूप-वर्णनमे आचुका है। यहां सुखासन-विषयक विशेष जानकारीके लिए यशस्तिलकके 'ध्यानविधि' नामक ३६ वें कल्पके निम्न पद्योको ध्यानमे लेनेकी जरूरत है. सन्यस्ताभ्यामधोऽघ्रिभ्यामूर्वोपरि युक्तित. । भवेच्च समगुल्फाभ्यां पद्म-वीर-सुखासनम् ।। तत्र सुखासनस्येद लक्षणम्-~गुल्फोत्तान-कराडगुष्ठ-रेखा-रोमालि-नासिका । समदृष्टि समाः कुर्यान्नाऽतिस्तब्धो न वामन ॥ तालत्रिमाग-मध्याघ्रि स्थिर-शीर्ष-शिरोधरः । सम-निष्पन्दपार्ण्यन-जानु-भ्र-हस्त-लोचनः ॥
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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