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________________ ध्यान-शास्त्र ६१ भाग पर अवस्थान, नयनोका अचचलपना और श्वासोच्छ्वासका सचार मन्द-मन्द होना चाहिए। सुखासनके विषयमे यहां कोई खास सूचना नहीं की गई। इस विषयमें भगवज्जिनसेनाचार्यने अपने आपग्रन्थ महापुराणके २१ वें पर्वमे सुखासनको आवश्यकता व्यक्त करते हुए यह सूचित किया है कि पर्यङ्कासन (पल्यडासन) और कायोत्सर्ग दोनो सुखासन हैं। इनसे भिन्न दूसरे आसन विषम आसन हैं । साथ ही पर्यड्कासनका स्वरूप यह दिया है कि 'अपने पर्यङ्कमें वाएँ हाथको और इसके ऊपर दाहिने हाथको इस तरह रक्खा जाय कि जिससे दोनो हाथोकी हथेलियां ऊपरकी ओर (उत्तानतल) हो' पैरोके विन्यासका कोई नियम नहीं दिया अथवा ग्रन्थप्रतिमे छूट गया जान पड़ता है, जो कि होता अवश्य है , जैसा कि प० आशाघर. जी-द्वारा अनगारधर्मामृतकी टीकामें उद्धृत तीन पुरातन पद्योसे जाना जाता है, जिनमेंसे एक पद्य इस प्रकार है स्याज्जंघयोरधोभागे पादोपरि कृते सति । पर्यको नाभिगोत्तान-दक्षिणोत्तरपाणिकः ।। यह पद्य योगशास्त्रके चौथे प्रकाशका १२५ वा पद्य है। इसमें नाभिसे मिली हाथोकी उपर्युक्त स्थितिके साथ एक पैरको जघा (पिंडली) के नीचे और दूसरेको जघाके ऊपर रखनेकी सूचना की गई है। १ वैमनस्ये च किं ध्यायेत्तस्मादिष्ट सुखासनम् । कायोत्सर्गश्च पर्यकस्ततोऽन्यद्विपमासनम् ॥२१-७१॥ तदवस्थाढयस्यैव प्राधान्य ध्यायतो यते ॥ प्रायस्तत्रापि पल्यवमामनन्ति सुखासनम् ॥२१-७२।। २. स्वपर्यके करं वामं न्यस्तोत्तानतल पुन । तस्योपरीतर पाणिमपि विन्यस्य तत्समम् ॥आर्ष २१-६१।। MPARA------
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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