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________________ तत्वानुशासन आवागमन न हो और या कोई दूसरा ऐसा प्रदेश हो जो प्रशस्त, प्रासुक, पवित्र तथा मरुभूमिको लिए हुए हो और उन सभी चेतन-अचेतन पदार्थोंसे रहित हो जो ध्यानमे विघ्नकारक हो। इन स्थानोमे बैठकर या खडे होकर ध्यान करनेके लिए भूतल तथा शिलापट्टको उपयुक्त बतलाया है। भूतलमें उपलक्षणसे इंट चूने आदिका फर्श और शिलापट्टमें काष्ठपट्ट-चौकी-चटाई आदि शामिल हैं। कालके विषयमें कोई विशेष सूचना नहीं की, केवल इतना ही लिख दिया कि वह दिनका हो या रातका, और इसलिए वह जिस समय भी बन सके अपनी ध्यान-परिणतिके अनुरूप चुना जाना चाहिए । अवस्थाके विषयमें यह सूचित किया गया है कि वह बैठकर तथा खडा होकर दोनो अवस्थाओसे किया जाता है। दोनो प्रमुख अवस्थाओमें आसन सुखासन, शरीरके अंगोका अकम्पन, दृष्टिका नासिकाके अन१. ध्यानशतककी निम्न गाथामे स्पष्ट लिखा है कि ध्यान करने वालोको दिन-रातकी वेलाओका कोई नियम नही है, जिस समय भी योगौंका उत्तम समाधान बन सके वही काल ग्रहण किये जानेके योग्य है-- "कालो वि सोच्चिय जहि जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ । ण उ दिवस णिसा वेलाइणियमण झाइणो भणियं ॥३८॥ श्रीजिनसेनाचार्य के आर्षग्रन्थमे और श्रीजिनभद्र-नामानित ध्यानशतकमे देहकी उस सब अवस्थाको जो ध्यानकी विरोधिनी नही है घ्यानके लिए ग्रहण किया है, चाहे वह खडे, बैठे या लेटे रूपमें हो - "देहावस्था पुनर्यैव न स्याद् ध्यानविरोधिनी। तदवस्थो मुनिायेत्स्थित्वाऽऽसित्वाऽघिशय्य वा ॥आर्ष २१-७५।। "जच्चिय देहावस्था जिया ण झाणोपरोहिणी होइ। झाइज्जा तदवत्थो ठिओ णिसण्णो णिवण्णो वा" ॥ध्यानश० ३९॥
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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