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ध्यान-शास्त्र
'प्रत्याहत्याऽक्ष-लु टाकांस्तदर्थभ्यः प्रयत्नतः। चिन्तां चाऽऽकृष्य सर्वेभ्यो निरुध्य ध्येय-वस्तुनि ॥१४॥ निरस्त-निद्रो निर्भीतिनिरालस्यो निरन्तरम् । स्वरूप पररूप वा ध्यायेदविशुद्धये ॥१५॥
'जहाँ स्त्रियो, पशुओं, नपुंसक जीवो तथा क्षुद्र-मनुष्यो प्रादिका भी सचार न हो ऐसे शून्यागार (खाली पड़े घर) मे या गुफामे अथवा अन्य किसी ऐसे स्थानमे जो अच्छा साफ हो, जीवजन्तुओंसे रहित प्रासुक-पवित्र हो, ऊँचा-नोचा न होकर समस्थल हों और चेतन-अचेतनरूप सभी ध्यानविघ्नोसे विवजित हो, दिनको अथवा रात्रिके समय, भूमि पर अथवा शिलापट्ट पर सुखासनसे बैठा हुआ या खडा हुश्रा, निश्चल अगोंका धारक सम और सरल लम्बे शरीरको लिए हुए, नाकके अग्रभागमे दृष्टिको निश्चल किए हुए, धीरे-धीरे श्वास लेता हुअा, बत्तीस दोषोसे रहित कायोत्सर्गसे व्यवस्थित हुआ, इन्द्रियोरूप लुटेरोको उनके विषयोसे प्रयत्नपूर्वक हटाकर और सर्व विषयोसे चिन्ताको खींचकर तथा ध्येयवस्तुमे रोककर निद्रारहित, निर्भय और निरालस्य हुआ ध्याता अन्तविशुद्धिके लिए स्वरूप अथवा पररूपको ध्यावे ।'
व्याख्या-पिछले पद्यमे ध्यानके लिए जिस परिकर्मकी आवश्यकता व्यक्त की गई है उसका कुछ सक्षिप्तरूप इन पद्योमे दिया गया है। ध्यानके लिए देश, काल, अवस्थादिको ठीक करनेकी जरूरत होती है उनमेसे देशके विषयमे यहाँ यह सूचित किया गया है कि वह या तो ऐसा शून्यागार (सूना मकान) तथा गुफा हो जिसमे स्त्री पशु-नपु सक-जीवोका तथा क्षुद्र-पुरुषोका १. पीकानि तदर्थेभ्य प्रत्याहृत्य ततो मन । सहृत्य धियमव्यग्रा धारयेद् ध्येयवस्तुनि ।। (मार्प २१-१०६)