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________________ वस्वानुशासन व्याख्या -- यहाँ ध्यानके लिए उत्साहित ययोक्तलक्षण ध्याताको प्रारम्भमे कुछ परिकर्म करनेकी - साधक कारणोको जुटाने तथा बाधक कारणों को हटानेकी प्रेरणा की गई है, जिसका रूप अगले छह पद्यो में दिया है। यह परिकर्म एक प्रकारकी ध्यानकी तैयारी अथवा संस्कृति है, जिसने अपनेको यथासाध्य सरकारित एवं सुसज्जित करना ध्याताका पहला वर्तव्य है । विवक्षित परिसम्प ६५ शून्यागारे गुहायां वा दिवा वा यदि वा निशि । स्त्री-पशु- क्लीव-जीवानां क्षुद्राणामप्यगोचरे ॥coll अन्यत्र वा क्वचिद्दशे प्रशस्ते प्रासुके समे । चेतनाऽचेतनाऽशेष ध्यानविघ्न-विर्वाजते ॥ ६१ ॥ भूतले वा शिलापट्ट सुखाssसीनः स्थितोऽथवा । सममृज्वायत गात्र निःकम्पाऽवयवं दधत् ॥६२॥ नासाऽग्रन्यस्त-निष्पन्द-लोचनो मन्दमुच्छ्वसन् । द्वात्रिंशद्दोष निर्मुक्त-कायोत्सर्ग - व्यवस्थित ४ ॥ ६३॥ - १. स्त्रीपयुक्लीवससक्तरहित विजन मुने । रावंदेवोचित स्थान ध्यानकाले विशेषतः ॥ ( आर्य २१ - ७७ ) निच्च चिय जुवद-पम-नपु सग पुसील - वज्जिय जणो । ठाणं वियण भणिय विसेसमो ज्ञाण-कालम्मि || - ध्यानशतक ३५ २ सममृज्वायतं विनद्गाश्रमस्तब्धवृत्तिकम् ॥ ( मार्च २१-६० ) ३. नात्युमिप चात्यन्त निम्पिन्मन्दगुच्छ्वसन् ॥ ( आप २१-६२ ) ४. पर्यक इव दिध्यासो कायोत्सर्गोऽपि सम्मत | समप्रयुक्तसर्वाङ्गो द्वात्रिंशद्दोपवर्जित || ( मा २१-६६ )
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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