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________________ ध्यान-शास्त्र ८७ 'जिस प्रकार अभ्याससे महाशास्त्र भी स्थिर-सुनिश्चित हो जाते हैं, उसी प्रकार अभ्यासियोंका ध्यान भी स्थिरताकोएकाग्रता अथवा सिद्धिको प्राप्त होता है।' व्याख्या- यहाँ ध्यानके अभ्यासियोको ध्यानसिद्धिका आश्वासन देते हुए ध्यानके अभ्यासको बराबर बढाते रहनेकी प्रेरणा की गई है और शास्त्राभ्यासके उदाहरण-द्वारा यह समझाया गया है कि जिस प्रकार बडे-बडे कठिन शास्त्र भी, जो प्रारम्भमे बडे ही दुर्गम तथा दुर्बोध मालूम होते हैं, बराबर पढने तथा मनन करनेके अभ्यास-द्वारा सुगम तथा सुखबोध हो जाते हैं, उसी प्रकार सतत अभ्यासके द्वारा ध्यान भी, जो पहले कुछ डांवाडोल रहता है, स्थिरताको प्राप्त हो जाता है, और यह स्थिरता ही ध्यानके चमत्कारोको प्रकट करनेमे समर्थ होती है। सच है 'करत करत अभ्यासके जडमति होत सुजान । रसरी आवत-जात-ते सिल पर पडत निशान ॥' अत ध्यानके अभ्यासमे ज़रा भी शिथिल तथा हतोत्साह न होना चाहिये, श्रद्धाके साथ उसे बराबर आगे बढाते रहना चाहिये। ध्याताको परिकर्मपूर्वक ध्यानकी प्रेरणा यथोक्त-लक्षणो ध्याता ध्यातुमुत्सहते यदा' । तदेवं परिकर्मादौ कृत्वा ध्यायतु धीरधीः ॥८६॥ 'यथोक्त लक्षणसे युक्त ध्याता जब ध्यान करनेके लिए उत्साहित होता है तब वह धीरबुद्धि प्रारम्भमे इस (आगे लिखे) परिकर्मको-सस्कार अयवा उपकरण-सामग्री के सज्जीकरणकोकरके ध्यान करे-इससे उसको ध्यानमे स्थिरता एव सिद्धिकी प्राप्ति हो सकेगी। १ मु यथा । २ मु तदेव, मे तदैव, सि जु तदेतत् । ३ सि परिकर्मादीन् ।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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