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तत्त्वानुशासन अभ्यास करता है उसकी ध्यान-विषयक धारणाएं जव सम्यक् और सुदृढ़ हो जाती हैं तब वह ध्यानके चमत्कारो-ज्ञानादिविषयक अतिगयोको भी प्राप्त होता है । अत निराश होनेकी कोई बात नही है । सम्यग्गुरुसे ध्यानविषयक उपदेशकी प्राप्ति करके उसके अनुसार निरन्तर ध्यानके अभ्यासकी क्षमताको बढाना चाहिए। सम्यग्गुरुमे साक्षात् और परोक्ष दोनो प्रकारके गुरु शामिल हैं, साक्षात गुरु वह जो ध्यानकी कला एव विधि-व्यवस्थासे भली प्रकार अवगत तथा अभ्यास-द्वारा उसे जीवनमे उतारे हुए हो और जिज्ञासुको उसके देनेमे उदार, निस्पृह एव निष्कपट हो । परोक्ष गुरु वह जिसने ध्यान-विषयक अपने अनुभवोको पूर्वगुरु-वाक्योके साथ अथवा उनके विना ही श्रुत-निबद्ध किया हो।
यहाँ 'धारणा-सौष्ठवात्' पदमे प्रयुक्त 'धारणा' शब्दका अभिप्राय उन मारुती, तेजसी और आप्या नामको धारणाओंसे है जिनका उल्लेख आगे ग्रन्थके १८३वे पद्यमे किया गया है और जिनके स्वरूपकी अतीव सक्षिप्त एव रहस्यमय सूचना उससे आगेके कुछ पद्योमे दी गई है। श्रुतनिर्दिष्ट बीजो (बीजमन्त्रो) के अवधारण (ससाधन) को भी धारणा कहते हैं । इस अर्थको दृष्टिसे अग्रोल्लिखित बीजमन्त्रोकी भले प्रकार सिद्धिसे ध्यानके प्रत्ययो-चमत्कारोका दर्शन होता है, ऐसा आशय निकलता है।
अभ्याससे दुर्गम-शास्त्रोंके समान ध्यानकी भी सिद्धि यथास्यासेन शास्त्राणि स्थिराणि स्युर्महान्यपि । तथा ध्यानपि स्थैर्य लभतेऽभ्यासतिनाम् ॥८॥ १. धारणा श्रुतनिर्दिष्ट-बीजानामवधारणम् । (आप २१-२२७) • अभ्यस्यमान बहुधा स्थिरत्व यथैति दुर्योधमपीह शास्त्रम् । नून तथा ध्यानमपीति मत्वा ध्यानं सदाऽभ्यस्यतु मोक्तुकामः॥
-अमितगत्युपासकाचार १०-१११ ३. ज महन्त्यपि।