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ध्यान-शास्त्र का उत्तर निषेधमे देने के लिये कोई कारण नही रहता। और यदि इस प्रश्नका उत्तर भी निषेधमे दिया जाता है तो फिर सामायिकादि दूसरे किसीभी चारित्रका अनुष्ठान इस कालमे नहीं बनता। इस तरह सम्यक्चारित्रका ही लोप ठहरता है और सम्यक्चारि
के लोपसे धर्मके लोपका प्रसग उपस्थित होगा। अत जो लोग वर्तमानकालको ध्यानके सर्वथा अयोग्य बतलाते हैं उनके कथनमे कोई सार नहीं है, वे अपने इस कथन-द्वारा अर्हन्मतसे अपनी अनभिज्ञता प्रकट करते हैं, जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है।
सम्यक्अभ्यासीको ध्यानके चमत्कारोका दर्शन सम्यग्गुरूपदेशेन समभ्यस्यन्ननारतम् । धारणा-सौष्ठवाद् 'ध्यान-प्रत्ययानपि पश्यति ॥८७॥
'जो यथार्थगुरुके उपदेशसे निरन्तर (ध्यानका) अभ्यास करता है वह धारणाके सौष्ठवसे-अपनी सम्यक् और सुदृढ अवधारण-शक्तिके बलसे-ध्यानके प्रत्ययोंको भी देखता हैलोकचमत्कारी ज्ञानादिके अतिशयोको भी प्राप्त होता है।'
व्याख्या-जिन लोगोको ऐसा खयाल है कि ध्यानका कोई चमत्कार आजकल देखनेमे नही आता, इसलिए ध्यान करना निरर्थक है, उन्हे इस पद्यमे ध्यानके चमत्कारोका आश्वासन दिया गया है और यह बतलाया गया है कि जो ध्याता यथार्थगुरुके उपदेशको पाकर उसके अनुसार निरन्तर भले प्रकार ध्यानका
१ मु ध्यान प्रत्ययानपि ।
२ प० आशाधरजीने इष्टोपदेशके ४०वें पद्यकी टीकामे 'ध्यानाद्धि लोकचमत्कारिण प्रत्ययाः स्यु' ऐसा लिखकर प्रमाणमे 'तथा चोक्त' वाक्यके साथ इस ग्रन्थके उक्त पद्यको उद्धृत किया है, जिससे 'ध्यानप्रत्ययान्' पदका स्पष्ट पाशय ध्यानके चमत्कारो तथा अतिशयोंसे जान पड़ता है।