________________
८४
तत्त्वानुशासन
वर्तमानमे ध्यानका युक्तिपुरस्सर समाधान ध्यातारश्चेन्न सन्त्यद्य श्रुतसागर पारगाः । तत्किमल्पश्रुतैरन्यैर्न ध्यातव्यं स्वशक्तित ॥ ८५ ॥ चरितारो न चेत्सन्ति यथास्यातस्य सम्प्रति । तत्किमन्ये यथाशक्ति 'माऽऽचरन्तु तपस्विन ॥८६॥
'यदि आजकल श्रुतसागरके पारगामी ध्याता नहीं हैं - और इसलिये ऊँचे दर्जेका ध्यान नही बनता तो क्या अल्पश्र तोको अपनी शक्ति अनुसार (नीचे दर्जेका) ध्यान न करना चाहिये ? यदि इस समय यथास्यातचारित्र के आचरिता नहीं हैं तो क्या दूसरे तपस्वी अपनी शक्तिके अनुसार (नीचे दर्जे के ) चारित्रका आचरण न करें ?'
व्याख्या - जो लोग ऊँचे दर्जेके ध्यानकी वातोंसे अभिभूत हुए आजकल समयको ध्यानका काल नही बतलाते उनसे यहाँ दो प्रश्न पूछे गये हैं । पहला प्रश्न यह है कि यदि आजकल श्रुतसागरके पारगामी श्र तकेवली जैसे ध्याता नही हैं तो क्या दूसरे अल्पश्रुतके धारक मुनियो आदिको अपनी सामर्थ्य के अनुसार ध्यान करना ही न चाहिये ? इसका उत्तर यदि वे विधि मे देते हैं तव तो उनकी आपत्ति हो समाप्त हो जाती है और यदि उत्तर निपेघमे देते हैं अर्थात् यह प्रतिपादन करते हैं कि अल्पश्रुतको ध्यान करना ही न चाहिये तो फिर दूसरा प्रश्न यह पैदा होता है कि आजकल मोक्ष प्राप्तिके पूर्ववर्ती यथास्यातचारित्रका आचरण करनेवाले भी कोई नही हैं तब क्या दूसरे साधुओको अपनी शक्तिके अनुसार तत्पूर्ववर्ती चारित्रका अनुष्ठान न करना चाहिये ? इसका उत्तर यदि विधि मे दिया जाता है तो पूर्व प्रश्न१. सि जु नाचरंती ।