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ध्यान - शास्त्र
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घम्यं शुक्ल चोपशान्त क्षीणकषाययोरस्तीति ? तन्न, कि काररम्, पूर्वस्यानिष्टत्वात्, पूर्वी हि धम्यं ध्यानं श्रण्योनेंष्यते आर्षे पूर्वेषु चेष्यते ।" तत्त्वा० वा० भा० ६-३६-१५ वज्रकायके ध्यान-विधानकी दृष्टि
यत्पुनर्वज्रकायस्थ ध्यानमित्यागमे वचः । श्रेण्योर्ध्यानं प्रतीत्योक्त तन्नाधस्तन्निषेधकम् ॥ ८४ ॥ 'उधर आगममे जो 'वज्रकायस्य ध्यानं 'वज्रकायके ध्यान होता है - ऐसा वचन निर्देश है वह दोनों श्र ेणियोके ध्यानको लक्ष्य लेकर कहा गया है और इसलिए वह नीचेके गुणस्थानवतियोंके लिए ध्यानका निषेधक नहीं है ।'
व्याख्या - "वज्रकायस्य ध्यानम्' यह वाक्य 'आर्ष' नामक आगमग्रन्थका है, जिसमे ध्यानका लक्षण और उस कालकी उत्कृष्ट मर्यादाका निर्देश करते हुए ध्यान - स्वामीके उल्लेखरूपमें इसे दिया है; जैसाकि उसके निम्न पद्यसे व्यक्त है :ऐकाग्र्येण निरोधः यश्चित्तस्यैकत्र वस्तुनि ।
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तध्यान वज्रकायस्य भवेदाऽऽन्तर्मुहूर्तत । २१-८॥ श्रेणियां दो है --उपशमश्रेणि और क्षपकश्रेणि । क्षपक| श्रेणिका चढना आद्यसहनन 'वज्रवृषभनाराच' के द्वारा ही बन सकता है और उसीसे मुक्तिकी प्राप्ति हो सकती है । · उपशमश्रेणिका चढना तीनो प्रशस्त सहननो - वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच और नाराच --- के द्वारा हो सकता है । इसलिए वस्त्रकायको ध्यानका स्वामी बतलाना श्रेणियोके ध्यानकी अपेक्षाको लिए हुए हैं, उनसे नीचेके चार गुणस्थानवर्तियोंसे उसका सम्बन्ध नही है-वे वज्रकाय न होने पर भी धर्म्यध्यानके स्वामी होते हैं । १ आद्यसहननेनैव क्षपकश्रेण्यधिश्रितः ।
त्रिभिराचं भंजेच्छ्रे णीमितरा श्रुततत्त्ववितु ॥ माषं २१-१०४ ।