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तत्त्वानुशासन संकाकंखागहिया विसयप्रसत्ता सुमग्गपन्भट्ठा। एवं भररांति केई ण हु कालो होइ झाणस्स ॥१४॥
शुक्लध्यानका निषेध है धर्म्यध्यानका नही अत्रेदानी निषेधन्ति शुक्लध्यान जिनोत्तमा । धर्म्यध्यानं पुनः प्राहुःश्रेणिभ्यां 'प्राग्विवर्तिनाम् ॥३॥ _ 'यहाँ इस (पचम) कालमें जिनेन्द्रदेव शुक्लध्यानका निषेध करते हैं परन्तु दोनो श्रेणियो (उपशम और क्षपक) से पूर्ववतियोंके धर्म्यध्यान बतलाते हैं इससे ध्यानमात्रका निषेध नही ठहरता।'
व्याख्या-यहाँ पिछले पद्यकी बातको स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि इस कालमे जिस ध्यानका निषेध किया गया है वह शुक्लध्यान है-धर्म्यध्यान नहीं । धर्म्यध्यानका विधान तो आगममे उपशम और क्षपक दोनो श्रेणियोके पूर्ववतियोंके, उस ध्यानके स्वामियोका निरूपण करते हुए, बतलाया गया है। इससे अप्रमत्त ही नही, किन्तु अगले अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसापराय नामके तीन गुणस्थानवी जीव भी धर्म्यध्यानके स्वामी हैं, ऐसा जानना चाहिये । आर्ष (महापुराण) और तत्त्वार्थवार्तिकभाष्यमे भी इसका उल्लेख है, जैसा कि उनके निम्न वाक्योंसे प्रकट है -
"श्रुतेन विकलेनाऽपि ध्याता स्यान्मुनिसत्तम । प्रबुद्धधीरध.श्रेण्योर्धय॑ध्यानस्य सुश्रुत ॥"
-आर्ष २१-१०२ "तदुभयं तत्रेति चेन्न पूर्वस्यानिष्टत्वात् । स्यादेतत्-उभयं १. सि जु प्राक्प्रवर्तिना।