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ध्यान-शास्त्र
वर्तमानमे ध्यानके निषेधक अर्हन्मतानभिज्ञ है येऽत्राहुन हि कालोऽयं ध्यानस्य ध्यायतामिति । तेऽहन्मताऽनभिज्ञत्वं ख्यापयन्त्यात्मन स्वयम् ॥२॥
'जो लोग यहाँ यह कहते हैं कि ध्याता पुरुषोके लिये यह काल ध्यानका नही है वे स्वयं अपनी भहन्मताऽनभिज्ञता-जिनमतसे अजानकारी-व्यक्त करते हैं।'
व्याख्या-यहाँ उन लोगोको जिनमतसे अनभिज्ञ बतलाया है जो यह कहते हैं कि इस क्षेत्रमे वर्तमान काल धर्म्यध्यानके लिये उपयुक्त नहीं है, क्योकि जिनमतमे ऐसा कही कोई निषेधात्मक विधान नहीं है, प्रत्युत इसके श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने मोक्खपाहुडमें साफ लिखा है :
भरहे दुस्समकाले धम्मज्झारणं हवेह णाणिस्स । तं अप्पसहावट्ठिये ण हु मरणई सो दु अण्णाणी ॥७६।।
अर्थात-इस भरतक्षेत्र तथा दुषम पचमकालमे ज्ञानीके धर्म्यध्यान होता है और वह आत्मस्वभावमे स्थित-आत्मभावनामे तत्परके होता है, जो इसे नही मानता है वह अज्ञानी है।
इससे पूर्वकी तीन गाथाओमे ऐसा कहने वालोको चारित्रमोहनीय कर्मसे अभिभूत, व्रतोंसे वर्जित, समितियोंसे रहित, गुप्तियोसे विहीन, ससारसुखमे लीन और शुद्धभावसे प्रभृष्ट बतलाया है, जिनमे एक गाथा इस प्रकार है
चरियावरिया वद-समिदि-वज्जिया सुद्धभावपक्वट्ठा। केई जपति णरा राहु कालो झाणजोयस्स ॥७३॥
श्रीदेवसेनाचार्यने भी, तत्त्वसारमे, ऐसा कहनेवालोको 'शकाकाक्षामे फंसे हुए, विषयोमे आसक्त और सन्मार्गसे प्रभृष्ट बतलाया है .