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तत्त्वानुशासन
सज्झायं कुव्वंतो पंचेंदिसंवुडो तिगुत्त य । हवदि य एकग्गमणे - विणण समाहिश्रो भिक्खु ॥
- मूला० ५-२१२,२१३ इसीसे आत्मप्रबोधमे विधिपूर्वक स्वाध्यायको, जिसमे मन ज्ञानके ग्रहण -धारणरूप, शरीर विनयसे विनियुक्त, वचन पाठाधीन और इन्द्रियोका समूह नियत एव नियंत्रित रहता है, 'समाध्यन्तर’— कर्मक्षयकरी समाधिका एक भेद - बतलाया है । साथ ही, यह भी सूचित किया है कि ऐसे विधिपूर्वक स्वाध्यायरतके गुप्तियो- समितियोका सहज पालन होता है और बद्धमूल हुई तीनो शल्ये - माया, मिथ्या, निदान - उखड जाती हैं। "
वास्तवमे देखा जाय तो स्वाध्याय आदि शेष तपोयोग और द्वादश अनुप्रेक्षाएँ ( भावनाएँ ) ये सब ध्यानके ही परिकर एक परिवार है', जैसाकि आर्षके निम्न वाक्योसे प्रकट है
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ततो दध्यावनुप्रेक्षा दिध्यासुर्धर्म्यमुत्तमम् । परिकर्ममितास्तस्य शुभा द्वादशभावनाः ॥। २०-२२६ ॥ ध्यानस्यैव तपोयोगा शेषाः परिकरा मता । ध्यानाभ्यासे ततो यत्न' शश्वत्कार्यो मुमुक्षुभिः ।। २१-२१५।।
१. मनो बोधाssधान विनय - विनियुक्त निजवपु.
वच पाठायत्त करण- गणमाधाय नियतम् ।
दधान स्वाध्याय कृतपरिणतिर्जेनवचने
करोत्यात्मा कर्मक्षयमिति समाध्यन्तरमिदम् ॥५१॥
गुप्तिनय भवति तस्य सुगुप्तमेव शल्यत्रयीमुदखनञ्च स बद्धमूला । तस्य स्वय समितय समिताश्च पच, यस्याऽऽगमे विधिवदध्ययनाऽनुबन्ध ॥५२॥