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________________ ७६ ध्यान-शास्त्र 'स्वाध्याय प्रणवादिपवित्राणां जपः मोक्षशास्त्राध्ययनं वा।' स्वाध्यायसे ध्यान और ध्यानसे स्वाध्याय स्वाध्यायाद् ध्यानमध्यास्तां ध्यानात्स्वाध्यायमाऽऽमनेत् । ध्यान-स्वाध्याय-सम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते ॥८॥ ___(साधकको चाहिये कि वह) 'स्वाध्यायसे ध्यानको अभ्यासमें लावे और ध्यानसे स्वाध्यायको चरितार्थ करे। ध्यान और स्वाध्याय दोनों की सम्पत्ति-सम्प्राप्तिसे परमात्मा प्रकाशित होता है-स्वानुभवमे लाया जाता है।' व्याख्या-यहाँ स्वाध्याय और ध्यान दोनोको एक दूसरेके अभ्यासमे सहायक बतलाया है और इसलिए एकके द्वारा दूसरेके अभ्यासकी प्रेरणा की गई है। साथ ही यह सूचना भी की गई है कि दोनोका अभ्यास परिपक्व हो जानेसे परमात्मा-परमविशुद्ध आत्मा-स्वानुभूतिका विषय बन जाता है उसके लिये फिर किसी विशेष यत्नकी जरूरत नही रहतो। जिस स्वाध्यायके द्वारा ध्यानका अभ्यास बनता है उसकी गणना द्वादशविध तपोमेसे छह प्रकारके अन्तरग तपोमे की गई है । स्वाध्याय तपका माहात्म्य वर्णन करते हुए मूलाचार ग्रन्थमे लिखा है कि-'बाह्याभ्यन्तर बारह प्रकारके तपोनुष्ठानमे स्वाध्यायके समान तप न है और न होगा । स्वाध्यायमे रत साधु पाचो इन्द्रियोको वशमे किये रहता है, मन-वचनकाय-योगके निरोधरूप त्रिगुप्तियोको अपनाता है, एकान-मन और विनयसे युक्त होता है - बारस'-विहम्मि य तवे सब्भंतरबाहिरे कुसलदिदु । ण वि अत्यि ण वि य होहि सज्झायसमो (म) तवो कम्म ॥ १ स वाह्याभ्यन्तरे चास्मिन्, तपसि द्वादशात्मनि । न भविष्यति नैवास्ति स्वाध्यायेन सम तप. | आर्ष २०-१९८ -
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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