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________________ ध्यान-शास्त्र कामोको सिद्ध करती हैं, परन्तु कट्रोलमे न रहने अथवा न रखे जाने पर वे ही अग्निकाण्डादिके द्वारा हमारा सर्वनाश करने और हमे मार डालने तकमे समर्थ हो जाती हैं। जिस उपायसे भी मन जीता जासके उसे अपनानेकी प्रेरणा येनोपायेन शक्येत सन्नियन्तु' चलं मनः । स एवोपासनीयोऽत्र न चैव विरमेत्ततः॥७॥ 'जिस उपायसे भी 'चंचल मनको भले प्रकार नियंत्रणमे रखा जासके वही उपाय यहां उपासनीय है-व्यवहार में लिये जाने (अपनाने) के योग्य है-उससे उपेक्षा धारण कर विरक्त कभी नहीं होना चाहिये-जो भी उपाय बने उससे मनको सदा अपने वशमे रखना चाहिये। ___ व्याख्या--यहाँ चचल मनको जैसे भी वने अपने वशमे रखनेकी सातिशय प्रेरणा की गई है और उसके लिये जो कोई भी उपाय जिस समय उपयुक्त हो उसे उस समय काममे लानेकी लेशमात्र भी उपेक्षा-लापर्वाही न की जानी चाहिये, ऐसा सुझाव दिया है। मनको जीतनेके अनेक उपाय हैं, जिनमेसे प्रमुख दो उपायोका निर्देश ग्रन्थकार महोदय स्वयं आगे करते हैं। मनको जीतनेके दो प्रमुख उपाय संचिन्तयन्ननुप्रेक्षा स्वाध्याये नित्यमुद्यतः । जयत्येव मन साधुरिन्द्रियाऽर्थ-पराड मुख ॥७॥ 'जो साधक सदा अनुप्रेक्षाप्रोका-अनित्यादि भावनाओकाभले प्रकार चिन्तन करता है, स्वाध्यायमें उद्यमी और इन्द्रियविषयोसे प्राय मुख मोड़े रहता है वह अवश्य ही (निश्चित रूपस) मनको जीतता है।' १. ज सि जु तन्नियन्तु।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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