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तत्त्वानुशासन
व्याख्या-यहाँ मनको जीतनेके दो प्रमुख उपायोका निर्देश किया गया है-एक अनुप्रेक्षाओका' सचिन्तन, दूसरा स्वाध्यायमे नित्य उद्यमी रहना। इन दोनोकी साधनामे लगा हुआ साधु पुरुष मनको निश्चित रूपसे जीतता है और (फलत) इन्द्रिय-विषयोसे पराड्मुख होता है । इन्द्रिय-विपयोसे पराड मुखता भी मनको जीतनेका एक साधन होती है और उस अर्थमे उसका आशय इन्द्रिय-विपयोमे अनासक्तिको समझना चाहिये, क्योकि इन्द्रियविपयोमे जो मन आसक्त होता है वह इन्द्रियोको जीतनेमे समर्थ नही होता।
इस पद्यमे अनुप्रेक्षाओ-भावनाओके साथ किसी सख्याविशेषका उल्लेख नही किया गया, इससे अनित्य, अशरण आदि रूपसे प्रसिद्ध जो द्वादश अनुप्रेक्षा अथवा बारह भावनाएं हैं, उनसे भिन्न दूसरी ज्ञानादि चार भावनाओका भी यहाँ ग्रहण किया जाना चाहिये, जिनका उल्लेख भगवज्जिनसेनाचार्यने 'ज्ञानदर्शनचारित्रवैराग्योपगताश्च ता" इस वाक्यके साथ अपने आर्ष ग्रन्थ महापुराणके २१वे पर्वमे किया है । तदनुसार वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षण, परिवर्तन (ग्रन्थो, श्लोको, वाक्योका कण्ठस्थ करना या पाठ करना) और सद्धर्म-देशना ये ज्ञानकी पाच भावनाएं हैं, जो प्राय तत्त्वार्थसूत्रगत स्वाध्याय के पच भेदोके रूपमे है । सवेग,
१. अनुप्रेक्षाश्च धर्म्यस्य स्यु सदैव निबन्धनम् । (ज्ञाना० ४१-३) २. ध्यानशतकमे भी इन चारो भावनामोका उललेख है और इनके पूर्वकृत अभ्यासको ध्यानकी योग्यता प्राप्त करनेवाला लिखा है - पुवकयन्भासो भावनाहि झाणस्स जोग्गयमुवेइ । तामो य णाण-दसण-चरित्त-वेरग्ग-जणियामओ ॥३०॥ ३ वाचना-पृच्छने सानुप्रेक्षण परिवर्तनम् । सद्धर्मदेशन चेति ज्ञातव्या ज्ञान-भावना ॥ आर्ष २१-६६ ।।