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________________ ७४ तत्त्वानुशासन होनेसे सदा उनके वशमे पडे रहते हैं और पंडितजन जो शास्त्रोका बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेने पर भी अपने विवेकको जागृत नही कर पाते और इसलिए इन्द्रिय-विषयोसे विरक्तिको प्राप्त नही होते- उलटा उनकी प्राप्तिको अपना स्वार्थ समझते रहते हैं-वे भी इन्द्रियोके विषयमे उलझे रहते हैं। अत जितचित्तके पास सच्चा ज्ञान और वैराग्य दोनो साधन इन्द्रियोको जीतनेके लिये होने चाहिये । ये दोनो प्रथमत मनको जीतनेके भी साधन है। ज्ञान और वैराग्य तीन लोकमे सार पदार्थ है। अपनी पूर्णावस्थामे शिव स्वरूप होते है और अपूर्णावस्थामे ये ही शिव-स्वरूपकी प्राप्तिके साधन बनते है । इन्द्रियोका जय(सयम)शिव-सुखकी प्राप्तिकी ओर एक बड़ा कदम है। जो यह कदम न उठाकर इन्द्रियोके दास बने रहते है उन्हे न जाने ये उन्मार्गगामी घोडे किस किस खड्डे मे पटककर दुखका भाजन बनाते है । नीतिकारोने भी इसीसे इन्द्रियोके असयमको विपदा और दु खोका मार्ग (हेतु) और उनके जयरूप सयमको सम्पदाओ (सुखो) का मार्ग बतलाया है और इनमेसे जिस मार्ग पर चलना इष्ट हो उस पर चलनेकी प्रेरणा की है । अर्थात् यह प्रतिपादन किया है कि यदि आप सुख चाहते हो तो इन्द्रियोको सयमसे स्वाधीन रखो और दुख चाहते हो तो सदा उनके गुलाम बने रहो। वास्तवमे देखा जाय तो इन्द्रियाँ उन विजलियोके समान हैं जो कट्रोल (नियत्रण) मे रखे जाने पर हमे प्रकाश प्रदान करती तथा हमारे यत्रोका सचालन कर हमारे अनेक प्रकारके १. तीन भुवनमें सार, वीतराग-विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नम हूँ त्रियोग सम्हारके ॥ --प० दौलतराम, छहढाला २ आपदा कथितः पन्था इन्द्रियाणामस यम । तज्जय सम्पदा मार्गो येनेष्ट तेन गम्यताम् ।।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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