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ध्यान-शास्त्र
व्याख्या-यहाँ इन्द्रियोंसे भी पहले मनको जीतनेका सहेतुक निर्देश किया गया है और यह बतलाया गया है कि मनको जीतने पर मनुष्य सहज ही जितेन्द्रिय हो जाता है। जिसने अपने मनको नही जीता वह इन्द्रियोको क्या जीतेगा ? मनके सकल्प-विकल्परूप व्यापारको रोकना अथवा मनकी चचलताको दूर कर उसे स्थिर करना 'मनको जीतना' कहलाता है । मनका व्यापार रुकने अथवा उसकी चचलता मिटनेपर इन्द्रियोका व्यापार स्वत रुक जाता है-वे अपने विषयोमे प्रवृत्त नही होती-उसी प्रकार जिस प्रकार कि वृक्षका मूल छिन्न-भिन्न हो जाने पर उसमे पत्रपुष्पादिककी उत्पत्ति नहीं हो पाती' ।
इन्द्रिय-घोडे किसके द्वारा कैसे जीते जाते हैं ? ज्ञान-वैराग्य-रज्जुभ्यां नित्यमुत्पथवर्तिनः। जितचित्त न शक्यन्ते धर्तुमिन्द्रिय-वाजिनः ॥७७॥ 'जिसने मनको जीत लिया है उसके द्वारा सदा उन्मार्गगामी इन्द्रियरूपी घोड़े ज्ञान और वैराग्य नामको दो रज्जुमो-रस्सियोके द्वारा धारण किये जा सकते-अपने वशमे रक्खे जा सकते
व्याख्या-यहां इन्द्रियोको उन घोडोकी उपमा दी गई है जो सदा उन्मार्गगामी रहते हैं, उन्हे जितचित्त मनुष्य ज्ञान और वैराग्यकी दोनो रासोसे अपने आधीन करनेमे समर्थ होता है। ज्ञान और वैराग्य ये दो प्रमुख साधन इन्द्रियोको वशमे करनेके है। अज्ञानी प्राणी इन्द्रिय विषयोके गुण-दोषोका परिज्ञान न १. गढे मनवावारे विसयेसु ण जति इदिया सव्वे । छिण्णे तरुस्स मूले कुत्तो पुरण पल्लवा हुति ॥६९।।
-आराधनासारे, देवसेनः