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________________ ७२ तत्त्वानुशासन व्याख्या-यहाँ सगत्यागमे वाह्य-परिग्रहोका त्याग अभिप्रेत है, क्योकि अन्तरग-परिग्रहमे क्रोधादि कषाये तथा हास्यादि नोकषायें आती हैं, जिन सबका कपायोके निग्रहमे समावेश है। कुसगतिका त्याग भी सगत्यागमे आ जाता है-वह भी सद्ध्यानमे बाधक होती है। व्रतोमे अहिंसादि महानतो तथा अणुव्रतो आदिका ग्रहण है। अनशन, ऊनोदर आदिके रूपमे अनेक प्रतिज्ञाएं भी व्रतोमे शामिल है। इन्द्रियोके जयमे स्पर्शन-रसनघ्राण-चक्षु-श्रोत्र ऐसे पांचो इन्द्रियोका विजय विवक्षित है। ध्यानकी और भी सामग्री है, परन्तु यहाँ सर्वतोमुख्य सामग्रीका उल्लेख है, शेप सामग्रीका 'च' शब्दमे समुच्चय किया गया है उसे अन्य ग्रन्थोके सहारेसे जुटाना चाहिये । इस ग्रन्थमे भी परिकर्म आदिके रूपमे जो कुछ अन्यत्र कहा गया है उसे भी ध्यानकी सामग्री समझना चाहिए। इस विपयके विशेष परिज्ञानके लिए ग्रन्थका २१८ वा पद्य और उसकी व्याख्या भी अवलोकनीय है। ___/मनको जीतनेवाला जितेन्द्रिय कैसे ? इन्द्रियाणां 'प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च मन प्रभु। मन एव जयेत्तस्माज्जिते तस्मिन् जितेन्द्रियः ।।७६॥ 'इन्द्रियोकोप्नवृत्ति और निवृत्ति दोनोमें मन प्रभु-सामर्थ्यवान्है, इसलिए (मुख्यत ) मनको ही जीतना चाहिये । मनके जीतने पर मनुष्य (वास्तवमे) जितेन्द्रिय होता है--इन्द्रियो पर विजय प्राप्त करता है।' १ सि जु निवृत्तौ च प्रवृत्तौ । २. सम्पादनोपयुक्त सभी प्रतियोमे 'प्रभु' पाठ है, जो नपु सकलिंगी 'मन.' पदके साथ ठीक मालूम नही होता । 'प्रभु' शब्द त्रिलिंगी है अत उसका नपुंसकलिंगी 'प्रभु' रूप यहाँ उपयुक्त जान पडता है।
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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