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ध्यान-शास्त्र 'चूकि आत्मा अपने आत्माको अपने आत्मामें अपने आत्माके द्वारा अपने प्रात्माके लिये अपने प्रात्महेतुसे ध्याता है। इसलिये कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ऐसे षट्कारकरूप परिणत हुआ प्रात्मा ही निश्चयनयको दृष्टिसे ध्यानस्वरूप हैं।'
व्याख्या-यहाँ निश्चयनयकी दृष्टिको और स्पष्ट किया गया है और उसके द्वारा यह सूचित किया गया है कि आत्मा ही ध्यानके समय किस प्रकारसे षट्कारकमय हुआ ध्यानस्वरूप होता है । जो ध्याता है वह आत्मा (कर्ता), जिसको ध्याता है वह शुद्ध स्वरूप आत्मा (कर्म), जिसके द्वारा ध्याता है वह ध्यानपरिणतिरूप आत्मा (करण), जिसके लिए ध्याता है वह शुद्धस्वरूपके विकास-प्रयोजनरूप आत्मा (सम्प्रदान), जिस हेतुसे ध्याता है वह सम्यग्दर्शनादिहेतुभूत आत्मा (अपादान), और जिसमे स्थित होकर अपने अविकसित शुद्धस्वरूपको ध्याता है वह आधारभूत अन्तरात्मा (अधिकरण) है । इस तरह शुद्धनयकी दृष्टिसे, जिसमे कर्ता-कर्मादि भिन्न नही होते,' अपना एक आत्मा ही ध्यानके समय षट्कारकमय परिणत होता है ।
__ ध्यानकी सामग्री सग-त्यागः कषायानां निग्रहो व्रत-धारणम् । मनोऽक्षारणां जयश्चेति सामग्री ध्यान-जन्मनि ॥७॥
'परिग्रहोका त्याग, कषायोका निग्रह-नियंत्रण, व्रतोका धारण और मन तथा इन्द्रियोका जीतना, यह सब ध्यानकी उत्पत्ति-निष्पत्तिमे सहायभूत-सामग्री है।' १ अभिन्न कर्तृ कर्मादिविषयो निश्चयो नय । (तत्त्वानु० २८) २ म मे जन्मने।