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तत्त्वानुशासन
भिन्न किसी दूसरे पदार्थके ज्ञानका स्पर्श तक नही करती तब वह ध्यानारूढबुद्धि 'ध्याति' ही ध्यान कहलाती है। इसी बातको प० आशाधरजीने 'अध्यात्म - रहस्य' मे ध्यातिके निम्न लक्षण-द्वारा व्यक्त किया है
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सन्तत्या वर्तते बुद्धि शुद्धस्वात्मनि या स्थिरा । ज्ञानान्तरास्पर्शवती सा ध्यातिरिह गृह्यताम् ॥ ८ ॥ ध्यानके उक्त निरुक्त्ययोंकी नय दृष्टि एवं' च कर्त्ता करणं कर्माऽधिकरणं फलं । ध्यानमेवेदमखिलं निरुक्तं निश्चयान्नयात् ॥७३॥ 'इस प्रकार निश्चयनयकी दृष्टिसे यह कर्त्ता, करण, कर्म, अधिकरण और फलरूप सव ध्यान ही कहा गया है ।'
व्याख्या - यह पद्य ध्यानकी निरुक्ति तथा तदर्थ- स्पष्टिविषयक उस कथन के उपसहारको लिये हुए है जिसका प्रारम्भ 'ध्यायते येन तद्ध्यान (६७) इस वाक्यसे हुआ था । इसमे स्पष्ट कह दिया गया है कि निश्चयनयकी दृष्टिसे ध्यानका कर्त्ता, ध्यानका करण, ध्यानका कर्म, ध्यानका अधिकरण और ध्यानका फल यह सब ध्यानरूप ही है । क्योकि निश्चयनयका स्वरूप ही 'प्रभिन्नकर्ता' - कर्मादि विषयो निश्चयो नय.' इस ग्रन्थ - वाक्य ( २९ ) के अनुसार ध्यानके कर्त्ता, करणादिको एक दूसरेसे सर्वथा भिन्न नही करता और इसलिये ध्यान शब्दकी निरुक्तियोमे उन सबका समावेश हो जाता है । यहाँ कर्त्ता आदि पदोके अन्तमे 'फल' पदका प्रयोग इस बातका सूचक है कि पूर्वपद्यमे 'ध्याति' - का जो उल्लेख है वह ध्यानफलके रूपमे है ।
निश्चयनयसे षट्कारकमयी आत्मा ही ध्यान है
स्वात्मानं स्वात्मनि स्वेन ध्यायेत्स्वस्मै स्वतो यत । षट्कारकमयस्तस्माद् ध्यानमात्मैव निश्चयात् ॥ ७४ ॥ १. मु एकं ।