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तत्त्वानुशासन
'किसीकी भी सहायतासे रहित उस केवल शुद्धश्रात्मामें जो चिन्ताका नियन्त्रण है उसका नाम ध्यान है प्रथवा उस आत्मामें चिन्ताके प्रभावका नाम ध्यान है और वह स्वसंवेदनरूप है ।'
व्याख्या - पूर्व पद्यमे जो बात मुख्यत कही गई है उसीको शुद्ध आत्मा पर घटित करते हुए यहाँ और स्पष्ट करके बतलाया गया है और यह साफ कर दिया गया है कि शुद्धात्मा के विषयमे जो चिन्ताका नियन्त्रण है अथवा अभाव है वह सब स्वसवेदनरूप ध्यान है ।
कौनसा श्रुतज्ञान ध्यान है और ध्यानका उत्कृष्ट काल श्रुतज्ञान मुदासीनं यथार्थमतिनिश्चलम् । स्वर्गाऽपवर्ग-फलदं ध्यानमाss - ऽन्तर्मुहूर्ततः ॥ ६६॥
'जो श्रुतज्ञान उदासीन - रागद्वेषसे रहित उपेक्षामययथार्थ र अत्यन्त स्थिर है वह ध्यान है, अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त रहता और स्वर्ग तथा मोक्ष-फलका दाता है । '
व्याख्या - यहाँ जिस श्रुतज्ञानको ध्यान बतलाया है उसके तीन महत्त्वपूर्ण विशेषण दिये हैं-- पहला 'उदासीन', दूसरा 'यथार्थ' ओर तीसरा 'अतिनिश्चल' । इन विशेषणोंसे रहित जो श्रुतज्ञान है वह ध्यानकी कोटिमे नही आता; क्योकि वह व्यग्र होता है और ध्यान व्यग्र नही होता, जैसा कि पूर्वपद्य ( ५६ ) मे प्रकट किया जा चुका है ।
'आ अन्तर्मुहूर्ततः' पदके द्वारा यहाँ एक विषय मे ध्यानके उत्कृष्ट कालका निर्देश किया गया है; जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्रके वे अध्यायमे 'आन्तर्मुहूर्तात्' पदके द्वारा विहित हुआ है । यह काल भी उत्तमसहननवालोकी दृष्टिसे है - हीनसहननवालोका एक ही विषयमे लगातार ध्यान इतने समय तक न ठहर सकने -