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________________ ध्यान-शास्त्र चिन्तानिरोधका वाच्यान्तर अभावो वा निरोधः स्यात्स च चिन्तान्तर-व्यय । एकचिन्तात्मको यद्वा स्वसंविच्चिन्तयोज्झिता ॥६४॥ 'अथवा अभावका नाम 'निरोध' है और वह दूसरी चिन्ताके विनाशरूप एकचिन्तात्मक है अथवा चिन्तासे रहित स्वसंवित्तिरूप है।' ___ व्याख्या-पूर्व पद्यमे जिसे 'रोध' शब्दसे उल्लेखित किया है उसीके लिये इस पद्यमे 'निरोध' शब्द प्रयोग किया गया है। इससे रोध और निरोध शब्द एक हो अर्थके वाचक हैं, यह स्पष्ट हो जाता है । 'चिन्ता' शब्दके साथ प्रयुक्त हुमा रोध या निरोध शब्द जब अभाव अर्थका वाचक होता है तब उसका आशय चिन्तान्तरके दूसरी चिन्ताओ के अभाव रूप होता है, न कि चिन्तामात्रके अभावरूप, और इसलिये उसे एकचिन्तात्मक अथवा चिन्ताओंसे रहित स्वसवेदनरूप भी कहा जाता है । निरोधका अभाव अर्थ ध्येयवस्तुकी किसी एक पर्यायके अभावकी दृष्टिको भी लिये हुए होता है और इससे ध्यान सर्वथा असत् नही ठहरता। अन्य चिन्ताके अभावकी विवक्षामे वह असत् (अभावरूप) है। किन्तु विवक्षित अर्थ-विषयके अधिगमस्वभावरूप सामर्थ्यकी अपेक्षासे सत्रूप ही है। तत्राऽऽत्मन्यासहाये यच्चिन्ताया. स्यान्निरोधनम् । तद्ध्यानं तदभावो वा स्वसंवित्ति-मयश्च स. ॥६५॥ १. ज सि जु स्वसवित्तिस्तयोज्झिता । मु मे चिन्तयोज्झित । २ "(प्रभाव ) केनचित्पर्यायेगेष्टत्वात् । अन्यचिन्ताऽभावविवक्षाया मसदेव ध्यानम् , विवक्षितार्थावगमस्वभावसामर्थ्यापेक्षया सदेवेति चोच्यते ।। (तत्त्वा० वा० ६-२७-१६ )
SR No.010640
Book TitleTattvanushasan Namak Dhyanshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages359
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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